गुरु के द्वारा शिष्य बनाने पर….

गुरु के द्वारा शिष्य बनाने पर गुरु अपनी ऊर्जा शक्ति दीक्षा के माध्यम से शिष्य के शरीर मे स्तिथ हृदय पर अपनी नजर या स्पर्श या किसी फुक या मंत्र के माध्यम से शिष्य  के ह्रदय क्षेत्र में अर्जित कर उसे  उर्ध्व गति की ओर मोड़ देता है और अब इस ऊर्जा का गमन पूरे शरीर मे चक्र की तरह  से गतिशील हो जाता है पर इसका शिष्य को आभाष  काफी समय के बाद ध्यान और समाधि की अवस्था मे होता है इस ऊर्जा  का  शरीर में धक धक नगाड़े की थाप या सन सन की आवाज की तरहपूरे शरीर मे आभास होने लगती है जिससे एकग्रता आ जाती है और शिष्य ध्यान अवस्था मे एकाग्र हो लम्बे समय तक ध्यान में समाधिस्थ हो कर बैठा रहता है इस अवस्था मे उसका नाता नाद से जुड़ जाता है और भौतिक दुनिया से संपर्क कम हो नाद बिंदु की आवाज से हो जाता है और ये नाद  गतिशील होने मे  गतिशीलता पर नाद का बहुत ही प्रभाव  पड़ता है  अगर उस नाद को तीव्र गति से स्पस्ट रूप से शिष्य को सुनना है तो  तो बाह्य रूप से  नाता खत्म कर अंदुरुनी  रूप से अपनी आत्मा से जुड़ना होता है उसे शरीर मे गुरु के आशीर्वाद से मिली इस नाद ब्रह्म की ध्वनि जो कि  विशेष ध्वनि होती है जो इड़ा ओर पिंघला से निकली ऊर्जा जब सुषम्ना में प्रवेश कर हृदय के पास पहुचती है तो इसका अनुभव हमे समाधि की अवस्था मे होता है इस ध्वनि को सुनाई देने के बाद  स्वास की गति अति कम यानी न के बराबर होती है और दोनों सुर के खुले रहने पर भी हमे आभास नही होता कि हम स्वास ले रहे या निकाल रहे है स्वास लगभग 2 अंगुल तकही सीमित रहता है या लगता है कि  ह

आता भी या नहि  या जाता भी हैऐसा भी   प्रतीत नही होता है और जबकि इस अवस्था मे शिष्य के समाधिस्थ होने पर  दोनों सुर कार्यरत रहते है एकाग्रता या समाधि में लय होने पर  ध्वनि तरंगों का आभास सहस्त्र चक्र तक अनुभव  किया जाता है ध्यान अवस्था मे जब नाद की  तीव्रता बढ़ जाती है। तो ये पूरे शरीर ने हरक़त करने लगती  है और एक तरह की विशेष कम्पन्न शरीर मे महसूस होती है गुरु कृपा या साधना से उतपन्न इस  नाद का मुख्य सबंध हमारे  ह्रदय क्षेत्र  से रहता है वहां से आगे उस ऊर्जा को ध्यान और गुरु कृपा से ध्यान की   अवस्था मे आगे बढ़ाया जाता है और ये आवाज हृदय से कंधे  ओर गले फिर आज्ञा चक्र पर ओर अंत मे सहस्त्र चक्र तक पूरे शरीर को  घेरते हुवे चलायमान महसूस होती है

, इसलिए, उच्च कोटि के साधक के द्वारा गुरु से प्राप्त इस ऊर्जा की प्रक्रिया शरीर मे सम्पन्न होती है  जिससे वह ऊर्जा मस्तिष्क तक पहुंच जाती है और । मस्तिस्क पर वह ऊर्जा सीधे आघात  करती  हुई हमारे ज्ञान तंतुओ की शिथिलता को दूर करके उन्हें ऊर्जा प्रदान करती है। इस प्रक्रिया से व्यक्ति की ज्ञान शक्ति में तीव्रता आना स्वाभाविक है और, व्यक्ति कुछ दिनों तक नियमित अभ्यास करता रहे तो वह सहज ध्यान अवस्था में पूर्ण एकाग्रता को  प्राप्त कर पूर्ण रूप से समाधिस्त हो जाता है और बाहरी वातावरण से उसका शारिरिक रिस्ता न्यून हो ईश्वर से जुड़ जाता है और विरक्त हो जाता है ओर उसमे केवल्य पन आ  सकता है

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