हम जानते है कि आध्यात्मिकताकी शिक्षा में गुरु वह पुल है या सेतु है जो शिष्य को अपने ज्ञान से ईश्वर से जोड़ता है और अनुभूत करवाता है गुरु के द्वारा शिष्य को अपनाए जाने के बाद गुरु अपनी ऊर्जा से शिष्य को उर्जित कर जब शिष्य अपने आचरण और व्यवहार को अपना कर आध्यात्मिक साधना जिसमे जप तप ध्यान समाधि आदि शामिल है के द्वारा नाद को प्राप्त कर अपनी आत्मा से परमात्मा के अस्तित्व को जान ओर महसूस कर लेता है ऐसी आध्यात्मिक अवस्था में शिष्य स्वम् गुरु सम बन जाते है और ईश्वर की अनुभूति को प्राप्त कर लेते है हम जानते है कि जो असली संत होते है वह रूहानियत की ही बाते करते है और अपने आराध्य की भक्ति में ही लय रहते है उनको भैतिक जगत से कोई लेना देना नही होता वह स्वम् ओर अपने गुरु में लीन रहते हैऐसे लोग ही संत कहलाने की परिभाषा में आते है ऐसे संत दृश्य ओर अद्रश्य को त्याग कर जो पुरुष केवल्य की स्तिथि में पहुच जाता है वह इस अवस्था में ईश्वर को जान लेता है यहां दृश्य ओर अद्रश्य को त्यागने से अर्थ है दृश्य प्रकाश होता है और अद्रश्य आवाज या ध्वनि या शब्द इनको जानकर कर इसको त्यागने वाला ही ब्रह्म स्वरूप हो। सकता है गुरु अपने शिष्य को सूक्ष्म ज्ञान का अति सूक्ष्म ज्ञान से अवगत करवाते है और जब शिष्य अपने अंदर के अवगुणों को त्याग कर जिसमे काम क्रोध लोभ मोह अहंकार द्वेष इर्ष्या मद आदि विकार को त्याग कर प्रेम ज्ञान ध्यान और समाधि के मार्ग पर अपने आचरण से आगे बढ़ता है तो उसे ज्ञान हो तो वह ईश्वर को जान लेता है और उसे गुरु और ईश्वर में भेद का अहसास हो जाता है गुरु एक माध्यम है जिसके द्वारा हम ईश्वर को जान सकते है दृश्य ओर अद्रश्य को जान जब गुरु केवल्य या वीतरागी की स्तिथि में पहुच जाता है तो उसे ईश्वरीय ज्ञान हो उसके होने का ज्ञान हो जाता है