पूर्ण रूप से मन और चित्त को शांत कर एकाग्र होसमाधि अवस्था मे जब कोई व्यक्ति या साधक अतल गहराइयों में डुबकी लगाता है। वह शांत होता है, तो उसकी स्थिरता उसे शून्य समाधि की ओर ले जाती है ओर ईश्वर से मिलन कराती है
जब कोई भी साधक प्रेम भक्ति ज्ञान और ध्यान की अवस्था को पार कर समाधि से एकाग्रता की ओर बढ़ता है और गुरु देव के आशीर्वाद से इस अवस्था मे एकाग्रचित हो कर समाधिस्थ होता है जो।कि एकाग्रता की उच्च अवस्था या स्तिथि होती है इस अवस्था मे साधक भौतिक संसार के सभी कार्य को सुचारू रूप से करता है पर इसका प्रभाव उसके आधात्मिक जीवन पर नही पड़ता ओर उसकामन हमेशासत्य यानी ईश्वर में लगा रहता है और मन कर्म और वचन से इसी में लगा रहता है उसे बाहरी दुनिया का कार्य करते हुवे ये भान नही होता कि वह भौतिक दुनिया मे लिप्त है उसे ये ही आभास होता है कि वह अध्यात्म में अपने गुरु में लय है और समाधिस्थ अपने हर समय महसूस करता है मेरी सोच के अनुसार भौतिक दुनिया में लय होते हुवे भी इंसान अंतरमन से समाधिस्थ रहता गया जो कि अध्यात्म की परिकस्था है इस अवस्था मे साधक का स्थिर रहने पर इस दुनिया मे कोई कर्म करना शेष नही रहता और निष्काम कर्म होना शरू हो जाते है जब साधक स्थायी रूप से समाधि की परिकाष्ठा पर होता है उसे कुछभी ध्यान नही रहता यदि कुछ रहता तो वो गुरु या ईश्वर का अस्तित्व ।