- दिनांक:: १८ नवम्बर २०२२
** क्या है पूजा? **
परम पूज्य श्रीसद्गुरुदेव भगवान जी की असीम कृपा और उनके अमोघ आशीर्वाद से प्राप्त सुबोध के आधार पर, आज “पूजा” शब्द का “शाब्दिक”, “व्यावहारिक” एवं “तात्त्विक” अर्थ, आप सभी धार्मिक और अध्यात्मप्रेमियों की सेवा में सादर प्रेषित है
चाहे कोई व्यक्ति (महिला-पुरुष) “पूजा” करता हो या नहीं भी करता हो, उसके द्वारा “पूजा” का सामान्यतया “व्यावहारिक मतलब” यह समझा जाता है कि –
(क) जिन प्रचलित व प्रतिष्ठित देवी- देवताओं की हम, उनके मन्दिरों में जाकर या अपने घर पर ही, “पूजा” करते हैं, उनकी मूर्तियों पर तथा मूर्तियों के सम्मुख, अपनी प्रचलित मान्यताओं के अनुसार सोडषोपचार विधि से उनका आवाहन, आसन, स्नान, खाने, पीने, सुनने, देखने, सूँघने, पहनने, सजाने, सँवारने की वस्तुएँ, कुंकुम, चन्दन, रोली, अक्षत, फल, फूल, पत्र, पुष्प, पंच मेवा, पंच मिठाई, स्वर्ण प्रतिमा, यज्ञोपवीत, वस्त्र, रुपया, सोना, चाँदी, हीरे- जवाहरात आदि की वस्तुएँ भेंट करना; तथा –
(ख) उन देवी- देवताओं के प्रचलित मंत्रों के जाप, स्तुतियों का पाठ, भजनों, संकीर्तनों, यज्ञ- हवन, आरती, लीला-मंचनों, कथाओं, संगीत आयोजनों, जुलूसों, तीर्थयात्रा आदि धार्मिक आयोजनों एवं सत्कर्मों के माध्यम से, उनकी महिमा का गुणगान करके, उनके आशीर्वाद से-
(i) अपनी विभिन्न प्रकार की सुख- सुविधाओं की, परिवार की, धन सम्पदा आदि की सुरक्षा तथा अपनी सभी प्रकार की इच्छाओं की अधिकाधिक पूर्ति होती रहे तथा
(ii) जो भी रोग या कष्ट वर्तमान में उनके व उनके परिजनों के साथ लगे हैं, उन कष्टों का यथाशीघ्र निवारण हो जाय साथ ही भविष्य में कोई भी रोग और कष्ट उनके जीवन में कभी न आवें।
“पूजा” चाहे बहुत बड़े स्तर की, बहुत दिनों तक चलने वाली हो अथवा छोटे स्तर की, कुछ ही मिनटों में संपन्न करने की हो, उस “पूजा” के “व्यावहारिक” एवं “विशेष” उद्देश्य उपर्युक्त दो ही समझे जाते हैं।
वस्तुत: “पूजा” शब्द का अर्थ कितना तात्विक एवं सार्थक है, इसे यदि हम ठीक से समझना चाहें तो इसके “पू+जा” इन दो वर्णों का सही अर्थ समझने की आवश्यकता है।
जिन महान ऋषि ने यह “पूजा” शब्द गढ़ा होगा, उनकी मेधाशक्ति को बारम्बार हार्दिक नमन् हैं, क्योंकि इस “पूजा” शब्द में सारी “धार्मिकता” व “आध्यात्मिकता” का, निम्नवत् रहस्य व तत्त्व भरा हुआ जान पड़ता है:-
*पूजा का आध्यात्मिक और तात्विक अर्थ*
“पूजा” शब्द में पहले-
(१)”पू” वर्ण का मतलब है – “पूर्ण” और “पूर्णता”; तथा- दूसरे-
(२)”जा” वर्ण का मतलब है – “जानना” और- “जाना”।
इस प्रकार “पूजा” शब्द के निम्नवत् पाँच “व्यावहारिक”, “शाब्दिक” एवं “तात्त्विक” अर्थ समझ में आते हैंः-
(i) किसी भी व्यक्ति का, वह कार्य “पूजा” कहलाता है, जिससे वह, उस “पूर्ण” अर्थात् “परमात्मा” को, पूर्ण संतुष्टि के साथ “जान” सके, उस “पूर्ण” परमात्मा का पूर्ण दर्शन कर सके, तथा पूर्ण सुखी, तृप्त एवं संतुष्ट अनुभव कर सके;
(ii) किसी भी व्यक्ति का वह कार्य,”पूजा” कहलाता है, जिससे वह स्वयं को “पूर्ण” रूप से “जान” सके, “आत्मसाक्षात्कार” कर सके;
(iii) किसी भी व्यक्ति का वह कार्य या प्रयास “पूजा” है, जिससे वह अपने “समाज व संसार” को, तथा इसे संचालित और नियन्त्रित करनेवाली “ज्ञानशक्ति” या “गुरूतत्व” को पूर्ण रूप से “जान” सके और उसके “प्रत्यक्ष ब्रह्मस्वरूप” का पूर्ण दर्शन कर, पूर्ण सुखी, पूर्ण तृप्त और पूर्ण सन्तुष्ट अनुभव कर सके;
(iv) किसी भी व्यक्ति का, वह प्रयास “पूजा” है, जिससे वह अपनी “अल्पता” से “पूर्णता” पाने की ओर “जा” सके और उसे पाकर पूर्ण आनन्दित, ज्ञानवान, सन्तुष्ट, एवं “कृतकृत्य” हो सके; तथा-
(v) किसी भी व्यक्ति का वह प्रयास “पूजा” है, जो उसे –
“ऊँ पूर्णमद: पूर्णमिदं
पूर्णात्पूर्णमुदिच्यते,
पूर्णस्य पूर्णमादाय
पूर्णमेवावशिष्यते”-
का, यह अर्थ भलीभाँति समझा सके कि-
*वह “परमात्मा” ही केवल पूर्ण है, उसकी यह “दृश्यमान सृष्टि” पूर्ण है, ऐसा कहा जाता है कि उस पूर्ण परमात्मा से ही पूर्ण सृष्टि बनी है, और उस पूर्ण में से, पूर्ण को निकाल देने पर भी वह “पूर्ण”, “पूर्ण” ही बना रहता हुआ जाना जाता है।*
ऐसे अद्भुत “पूजा” कर्म की जय हो। ऐसे “दिव्य पूजाज्ञान” के उदार मंजुल, मंगलमय फलदातार “श्रीसद्गुरूदेव भगवानजी” की सदा जय हो! जय हो!! जय हो!!!
** हरि:ॐ तत्सत् **
*ॐ श्री सदगुरवे