सपना सा है ये जीवन जिसमे पैदा होने की खुशी और
मरने का मातम मिला रहता है
ये जानते हुवे की प्रारब्ध भुगतने है और
अगले जीवन के लिए मुझे ही प्रारब्ध करने है
जो मेरी म्रत्यु के बाद अगले जन्म तक काम आएगी
ओर जान गया कि प्रारब्ध के अनुसार अगला जन्म तय होगा
ये ही सोच कर मैं भी कुछ कर्म नेक करने लगा ओर
प्रारब्ध जान कुछ ध्यान उस ईश्वर की ओर लगाने की कोशिश करने लगा
ओर अध्यात्मिक जीवन को जीने के लिए एक सशक्त गुरु की खोज करने लगा
मुझे कही कपटी तो कहि लालची तो कहि अशिक्षित गुरुओ से मिलान हुवा
पर मन में संतोष कहि न मिला ओर अंत मे
ये ही सोच के माता पिता को गुरु मान मैंने गीता
रामायण की पढ़ा और समझा वेद में रुचि रख उसे जाना
तब समझ मे आया कि गुरु तो ज्ञान दे हमे शिक्षित करता है और
कर्म निर्माण करवाता है पर माता पिता को जो गुरु रुप में देखता है
वह जल्द भाव सागर पार हो जाता है ये भेद जब मुझे समझ मे आया
मैंने सब छोड़ माता पिता में ही गुरु पाया
जो देते निष्पक्ष राय और आशीर्वाद उन्ही की प्रेरणा से
मैं इस जग को समझ ईश्वर को जान पाया
ओर समझ गया कि यदि कहि कोई ईश्वर है
तो माता पिता के चरणों मे अन्य कहि नही