अगर 6 6 महीने उतरायन ओर दक्षिण यायन रहेगा तो क्या दक्षीनयन में जो खत्म होगा चाहे संत हो मोक्ष नही होगी ये फिजूल।की बात क्यो ओर इसका क्या महत्व यर मेरी सोच है जबकि मोत तो जब आएगी तभी होगीमेरा ये प्रश्न है जो कि बहुत गहरा और दार्शनिक है, जो उत्तरायण और दक्षिणायन के ज्योतिषीय महत्व, मोक्ष की अवधारणा, और मृत्यु के समय के संदर्भ में उठता है। कि यदि उत्तरायण और दक्षिणायन दोनों छह-छह महीने के होते हैं, तो क्या दक्षिणायन में मृत्यु होने पर संत जैसे व्यक्ति को भी मोक्ष नहीं मिलेगा, और क्या यह मान्यता फिजूल है, क्योंकि मृत्यु तो अनियंत्रित है ओर निश्चित है और जब आती है, तब आती है। इस प्रश्न को हिंदू दर्शन, ज्योतिष, और महाभारत के संदर्भ (विशेषकर भीष्म और कर्ण के प्रसंगों) में समझाने का प्रयास करता हु । साथ ही, मैं इसे संक्षिप्त और स्पष्ट रखने की कोशिश भी करूँगा उत्तरायण और दक्षिणायन का ज्योतिषीय और आध्यात्मिक महत्वउत्तरायण (6 महीने, जनवरी-जून):यह समय सूर्य की उत्तर दिशा की गति का होता है, जो मकर संक्रांति (लगभग 14 जनवरी) से शुरू होता है। भगवद गीता में कहा गया है कि उत्तरायण में देह त्यागने वाली आत्माएँ ब्रह्मलोक या मोक्ष की ओर जाती हैं।सूर्य, जो आत्मा और जीवन शक्ति का कारक है, इस समय प्रबल होता है। यह समय सकारात्मक ऊर्जा, प्रगति, और आध्यात्मिक उन्नति के लिए अनुकूल माना जाता है।दक्षिणायन (6 महीने, जुलाई-दिसंबर):यह समय सूर्य की दक्षिण दिशा की गति का होता है, जो कर्क संक्रांति (लगभग 16 जुलाई) से शुरू होता है। गीता में कहा गया है कि दक्षिणायन में देह त्यागने वाली आत्माएँ पुनर्जनम के चक्र में रहती हैं।यह समय आत्म-चिंतन, पितृ कार्य, और तपस्या के लिए उपयुक्त माना जाता है, लेकिन मोक्ष प्राप्ति के लिए कम शुभ माना जाता हैक्या दक्षिणायन में मृत्यु होने पर संत को भी मोक्ष नहीं मिलेगी मेरा यह प्रश्न का पहला हिस्सा यह है कि क्या दक्षिणायन में मृत्यु होने पर संत जैसे व्यक्ति को भी मोक्ष नहीं मिलेगा। इसका जवाब हिंदू दर्शन और ज्योतिष के आधार पर निम्नलिखित हैमोक्ष कर्मों पर निर्भर करती है, न कि केवल समय परभगवद् गीता में उत्तरायण और दक्षिणायन का उल्लेख सामान्य आत्माओं के लिए है, न कि उन संतों या साधकों के लिए जो पहले ही आध्यात्मिक रूप से उच्च स्तर पर पहुँच चुके हैं। एक संत, जो अपने कर्म, साधना, और भक्ति से मोक्ष के योग्य हो चुका है, उसे मृत्यु का समय (उत्तरायण या दक्षिणायन) बाधित नहीं करता।उदाहरण के लिए, कई संत जैसे आदि शंकराचार्य, रामकृष्ण परमहंस, या स्वामी विवेकानंद की मृत्यु दक्षिणायन में हुई, लेकिन उनकी आध्यात्मिक साधना के कारण उन्हें मोक्ष प्राप्त हुआ माना जाता है। मोक्ष कर्म, भक्ति, और आत्म-साक्षात्कार पर निर्भर करता है, न कि केवल ज्योतिषीय समय पर।उत्तरायण-दक्षिणायन का महत्व सामान्य आत्माओं के लिए:गीता का उल्लेख सामान्य मनुष्यों के लिए है, जिनके कर्म और साधना का स्तर संतों जैसा नहीं होता। उत्तरायण का समय सूर्य की प्रबल ऊर्जा के कारण आत्मा को उच्च लोकों की ओर ले जाने में सहायक होता है, जबकि दक्षिणायन में आत्मा कर्म बंधनों में रह सकती है।संतों के लिए, जो पहले ही कर्म बंधनों से मुक्त हो चुके हैं, यह नियम लागू नहीं होता।भीष्म का उदाहरण:भीष्म ने उत्तरायण में देह त्यागा क्योंकि वे ज्योतिषीय और आध्यात्मिक नियमों के प्रति जागरूक थे। वे मोक्ष प्राप्त करना चाहते थे, और उनकी इच्छामृत्यु की शक्ति ने उन्हें समय चुनने का अवसर दिया। लेकिन यह उनकी साधना और धर्मनिष्ठा का परिणाम था, न कि केवल समय का प्रभाव।कर्ण का उदाहरण:कर्ण की मृत्यु दक्षिणायन में हुई, और उनकी मृत्यु त्रासद थी। यह उनके कर्म बंधनों (श्राप, दुर्योधन की मित्रता) और अधूरी साधना का प्रतीक हो सकता है। लेकिन कर्ण की उदारता और धर्मनिष्ठा के कारण उन्हें भी उच्च स्थान प्राप्त हुआ माना जाता है, हालाँकि वह मोक्ष तक नहीं पहुँचा।क्या यह मान्यता फिजूल है?आपके प्रश्न का दूसरा हिस्सा यह है कि क्या उत्तरायण-दक्षिणायन की मान्यता फिजूल है, क्योंकि मृत्यु का समय मनुष्य के नियंत्रण में नहीं होता। इसका जवाब निम्नलिखित है:मान्यता का महत्व:उत्तरायण और दक्षिणायन की अवधारणा हिंदू ज्योतिष और दर्शन में प्रकृति के चक्र और कर्म सिद्धांत से जुड़ी है। यह मान्यता फिजूल नहीं है, बल्कि यह जीवन को एक व्यवस्थित और आध्यात्मिक दृष्टिकोण देती है।यह समय-चक्र मनुष्य को अपने कर्मों के प्रति जागरूक करता है। उदाहरण के लिए, उत्तरायण में शुभ कार्य और दक्षिणायन में पितृ कार्य करने की परंपरा इस विश्वास से उपजी है।यह मान्यता कर्म और साधना के महत्व को रेखांकित करती है, न कि केवल मृत्यु के समय को। यह मनुष्य को जीवन में धर्म, तप, और भक्ति की ओर प्रेरित करती है ताकि मृत्यु के समय की परवाह न करनी पड़े।मृत्यु का समय अनियंत्रित क्यों?:आप सही कहते हैं कि मृत्यु का समय मनुष्य के नियंत्रण में नहीं होता। अधिकांश लोग अपनी मृत्यु का समय नहीं चुन सकते, जैसे भीष्म ने किया। लेकिन हिंदू दर्शन में यह माना जाता है कि जीवनकाल में किए गए कर्म और साधना मृत्यु के समय के प्रभाव को कम कर सकते हैं।उदाहरण के लिए, एक साधक जो भगवान की भक्ति में लीन है, वह किसी भी समय मृत्यु होने पर मोक्ष प्राप्त कर सकता है, क्योंकि उसकी आत्मा पहले ही कर्म बंधनों से मुक्त हो चुकी होती है।फिजूल क्यों नहीं?:यह मान्यता मनुष्य को जीवन में सही कर्म करने, साधना करने, और आध्यात्मिक जागरूकता बढ़ाने के लिए प्रेरित करती है। यह एक मार्गदर्शन है, न कि कठोर नियम।उत्तरायण और दक्षिणायन का महत्व प्रकृति के साथ मानव जीवन के तालमेल को दर्शाता है। यह समय के चक्र को समझने और जीवन को सार्थक बनाने का एक तरीका है।यह मान्यता कर्म सिद्धांत का हिस्सा है, जो कहता है कि हमारे कर्म ही हमारे भविष्य को निर्धारित करते हैं। मृत्यु का समय केवल एक कारक है, न कि अंतिम निर्धारक।इसका महत्व क्या है?आध्यात्मिक महत्व:उत्तरायण और दक्षिणायन का चक्र मनुष्य को प्रकृति के साथ संतुलन में जीने की प्रेरणा देता है। यह समय के महत्व और कर्मों के प्रभाव को समझने में मदद करता है।यह मान्यता मनुष्य को जीवन में साधना, दान, और धर्म के कार्य करने के लिए प्रेरित करती है ताकि मृत्यु का समय चाहे जो हो, आत्मा उच्च स्तर की ओर जाए।ज्योतिषीय महत्व:सूर्य की गति (उत्तरायण और दक्षिणायन) ग्रहों और नक्षत्रों के प्रभाव को प्रभावित करती है। उत्तरायण में सूर्य की प्रबलता आत्मा को उच्च ऊर्जा प्रदान करती है, जबकि दक्षिणायन में चंद्रमा और पितृ कार्यों का प्रभाव बढ़ता है।यह चक्र कुंडली में सूर्य, शनि, और राहु/केतु के प्रभाव को समझने में मदद करता है।सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व:उत्तरायण में मकर संक्रांति, पोंगल जैसे त्योहार और दक्षिणायन में पितृ पक्ष, गुरु पूर्णिमा जैसे अवसर इस चक्र को सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण बनाते हैं।यह मान्यता समाज को एकजुट करती है और जीवन के विभिन्न पहलुओं (कृषि, धर्म, साधना) को समय के साथ जोड़ती है। मृत्यु का समय और मोक्ष: एक संतुलित दृष्टिकोणमृत्यु अनियंत्रित, लेकिन कर्म नियंत्रित:यह सत्य है कि मृत्यु का समय हमारे हाथ में नहीं है। लेकिन हिंदू दर्शन कहता है कि जीवन में किए गए कर्म और साधना मृत्यु के समय के प्रभाव को कम कर सकते हैं।एक संत या साधक, जो जीवन में भक्ति और कर्म से मुक्त हो चुका है, उसे उत्तरायण या दक्षिणायन का बंधन नहीं बाँधता। उदाहरण के लिए, भगवान राम या श्रीकृष्ण की मृत्यु का समय ज्योतिषीय रूप से विश्लेषित नहीं किया जाता, क्योंकि वे स्वयं मुक्त आत्माएँ थे।भीष्म और कर्ण का उदाहरण:भीष्म ने उत्तरायण चुना क्योंकि उनकी इच्छामृत्यु की शक्ति थी, और वे मोक्ष के लिए ज्योतिषीय समय का लाभ उठाना चाहते थे। यह उनकी साधना और जागरूकता का परिणाम था।कर्ण की मृत्यु दक्षिणायन में हुई, लेकिन उनकी उदारता और धर्मनिष्ठा ने उन्हें उच्च स्थान दिलाया। यह दर्शाता है कि कर्म और साधना समय से अधिक महत्वपूर्ण हैं।संतों के लिए:एक संत, जो आत्म-साक्षात्कार प्राप्त कर चुका है, उसे मृत्यु का समय बाधित नहीं करता। गीता में कहा गया है कि जो भगवान में लीन है, वह किसी भी समय मोक्ष प्राप्त कर सकता है निष्कर्षउत्तरायण-दक्षिणायन की मान्यता फिजूल नहीं:यह मान्यता प्रकृति, कर्म, और आध्यात्मिकता के बीच संतुलन को दर्शाती है। यह मनुष्य को जीवन में सही कर्म करने और साधना की ओर प्रेरित करती है।यह ज्योतिषीय और आध्यात्मिक मार्गदर्शन है, जो सामान्य मनुष्यों के लिए उपयोगी है, लेकिन संतों या साधकों पर लागू नहीं होता।मृत्यु का समय और मोक्ष:मृत्यु का समय अनियंत्रित है, लेकिन कर्म और साधना नियंत्रित हैं। एक साधक अपने जीवनकाल में मोक्ष के योग्य बन सकता है, चाहे मृत्यु किसी भी समय हो।संतों के लिए, जो पहले ही कर्म बंधनों से मुक्त हो चुके हैं, उत्तरायण या दक्षिणायन का कोई बंधन नहीं है।महत्व:यह मान्यता जीवन को अर्थ देती है, कर्मों के प्रति जागरूकता बढ़ाती है, और प्रकृति के साथ तालमेल बिठाने में मदद करती है।यह समय के चक्र को समझने और जीवन को सार्थक बनाने का एक दार्शनिक और ज्योतिषीय दृष्टिकोण प्रदान करती है।
HomeVachanअगर 6 6 महीने उतरायन ओर दक्षिण यायन रहेगा तो क्या दक्षीनयन में जो खत्म होगा चाहे संत हो मोक्ष नही होगी ये फिजूल।की बात क्यो ओर इसका क्या महत्व यर मेरी सोच है जबकि मोत तो जब आएगी तभी होगीमेरा ये प्रश्न है जो कि बहुत गहरा और दार्शनिक है, जो उत्तरायण और दक्षिणायन के ज्योतिषीय महत्व, मोक्ष की अवधारणा, और मृत्यु के समय के संदर्भ में उठता है। कि यदि उत्तरायण और दक्षिणायन दोनों छह-छह महीने के होते हैं, तो क्या दक्षिणायन में मृत्यु होने पर संत जैसे व्यक्ति को भी मोक्ष नहीं मिलेगा, और क्या यह मान्यता फिजूल है, क्योंकि मृत्यु तो अनियंत्रित है ओर निश्चित है और जब आती है, तब आती है। इस प्रश्न को हिंदू दर्शन, ज्योतिष, और महाभारत के संदर्भ (विशेषकर भीष्म और कर्ण के प्रसंगों) में समझाने का प्रयास करता हु । साथ ही, मैं इसे संक्षिप्त और स्पष्ट रखने की कोशिश भी करूँगा उत्तरायण और दक्षिणायन का ज्योतिषीय और आध्यात्मिक महत्वउत्तरायण (6 महीने, जनवरी-जून):यह समय सूर्य की उत्तर दिशा की गति का होता है, जो मकर संक्रांति (लगभग 14 जनवरी) से शुरू होता है। भगवद गीता में कहा गया है कि उत्तरायण में देह त्यागने वाली आत्माएँ ब्रह्मलोक या मोक्ष की ओर जाती हैं।सूर्य, जो आत्मा और जीवन शक्ति का कारक है, इस समय प्रबल होता है। यह समय सकारात्मक ऊर्जा, प्रगति, और आध्यात्मिक उन्नति के लिए अनुकूल माना जाता है।दक्षिणायन (6 महीने, जुलाई-दिसंबर):यह समय सूर्य की दक्षिण दिशा की गति का होता है, जो कर्क संक्रांति (लगभग 16 जुलाई) से शुरू होता है। गीता में कहा गया है कि दक्षिणायन में देह त्यागने वाली आत्माएँ पुनर्जनम के चक्र में रहती हैं।यह समय आत्म-चिंतन, पितृ कार्य, और तपस्या के लिए उपयुक्त माना जाता है, लेकिन मोक्ष प्राप्ति के लिए कम शुभ माना जाता हैक्या दक्षिणायन में मृत्यु होने पर संत को भी मोक्ष नहीं मिलेगी मेरा यह प्रश्न का पहला हिस्सा यह है कि क्या दक्षिणायन में मृत्यु होने पर संत जैसे व्यक्ति को भी मोक्ष नहीं मिलेगा। इसका जवाब हिंदू दर्शन और ज्योतिष के आधार पर निम्नलिखित हैमोक्ष कर्मों पर निर्भर करती है, न कि केवल समय परभगवद् गीता में उत्तरायण और दक्षिणायन का उल्लेख सामान्य आत्माओं के लिए है, न कि उन संतों या साधकों के लिए जो पहले ही आध्यात्मिक रूप से उच्च स्तर पर पहुँच चुके हैं। एक संत, जो अपने कर्म, साधना, और भक्ति से मोक्ष के योग्य हो चुका है, उसे मृत्यु का समय (उत्तरायण या दक्षिणायन) बाधित नहीं करता।उदाहरण के लिए, कई संत जैसे आदि शंकराचार्य, रामकृष्ण परमहंस, या स्वामी विवेकानंद की मृत्यु दक्षिणायन में हुई, लेकिन उनकी आध्यात्मिक साधना के कारण उन्हें मोक्ष प्राप्त हुआ माना जाता है। मोक्ष कर्म, भक्ति, और आत्म-साक्षात्कार पर निर्भर करता है, न कि केवल ज्योतिषीय समय पर।उत्तरायण-दक्षिणायन का महत्व सामान्य आत्माओं के लिए:गीता का उल्लेख सामान्य मनुष्यों के लिए है, जिनके कर्म और साधना का स्तर संतों जैसा नहीं होता। उत्तरायण का समय सूर्य की प्रबल ऊर्जा के कारण आत्मा को उच्च लोकों की ओर ले जाने में सहायक होता है, जबकि दक्षिणायन में आत्मा कर्म बंधनों में रह सकती है।संतों के लिए, जो पहले ही कर्म बंधनों से मुक्त हो चुके हैं, यह नियम लागू नहीं होता।भीष्म का उदाहरण:भीष्म ने उत्तरायण में देह त्यागा क्योंकि वे ज्योतिषीय और आध्यात्मिक नियमों के प्रति जागरूक थे। वे मोक्ष प्राप्त करना चाहते थे, और उनकी इच्छामृत्यु की शक्ति ने उन्हें समय चुनने का अवसर दिया। लेकिन यह उनकी साधना और धर्मनिष्ठा का परिणाम था, न कि केवल समय का प्रभाव।कर्ण का उदाहरण:कर्ण की मृत्यु दक्षिणायन में हुई, और उनकी मृत्यु त्रासद थी। यह उनके कर्म बंधनों (श्राप, दुर्योधन की मित्रता) और अधूरी साधना का प्रतीक हो सकता है। लेकिन कर्ण की उदारता और धर्मनिष्ठा के कारण उन्हें भी उच्च स्थान प्राप्त हुआ माना जाता है, हालाँकि वह मोक्ष तक नहीं पहुँचा।क्या यह मान्यता फिजूल है?आपके प्रश्न का दूसरा हिस्सा यह है कि क्या उत्तरायण-दक्षिणायन की मान्यता फिजूल है, क्योंकि मृत्यु का समय मनुष्य के नियंत्रण में नहीं होता। इसका जवाब निम्नलिखित है:मान्यता का महत्व:उत्तरायण और दक्षिणायन की अवधारणा हिंदू ज्योतिष और दर्शन में प्रकृति के चक्र और कर्म सिद्धांत से जुड़ी है। यह मान्यता फिजूल नहीं है, बल्कि यह जीवन को एक व्यवस्थित और आध्यात्मिक दृष्टिकोण देती है।यह समय-चक्र मनुष्य को अपने कर्मों के प्रति जागरूक करता है। उदाहरण के लिए, उत्तरायण में शुभ कार्य और दक्षिणायन में पितृ कार्य करने की परंपरा इस विश्वास से उपजी है।यह मान्यता कर्म और साधना के महत्व को रेखांकित करती है, न कि केवल मृत्यु के समय को। यह मनुष्य को जीवन में धर्म, तप, और भक्ति की ओर प्रेरित करती है ताकि मृत्यु के समय की परवाह न करनी पड़े।मृत्यु का समय अनियंत्रित क्यों?:आप सही कहते हैं कि मृत्यु का समय मनुष्य के नियंत्रण में नहीं होता। अधिकांश लोग अपनी मृत्यु का समय नहीं चुन सकते, जैसे भीष्म ने किया। लेकिन हिंदू दर्शन में यह माना जाता है कि जीवनकाल में किए गए कर्म और साधना मृत्यु के समय के प्रभाव को कम कर सकते हैं।उदाहरण के लिए, एक साधक जो भगवान की भक्ति में लीन है, वह किसी भी समय मृत्यु होने पर मोक्ष प्राप्त कर सकता है, क्योंकि उसकी आत्मा पहले ही कर्म बंधनों से मुक्त हो चुकी होती है।फिजूल क्यों नहीं?:यह मान्यता मनुष्य को जीवन में सही कर्म करने, साधना करने, और आध्यात्मिक जागरूकता बढ़ाने के लिए प्रेरित करती है। यह एक मार्गदर्शन है, न कि कठोर नियम।उत्तरायण और दक्षिणायन का महत्व प्रकृति के साथ मानव जीवन के तालमेल को दर्शाता है। यह समय के चक्र को समझने और जीवन को सार्थक बनाने का एक तरीका है।यह मान्यता कर्म सिद्धांत का हिस्सा है, जो कहता है कि हमारे कर्म ही हमारे भविष्य को निर्धारित करते हैं। मृत्यु का समय केवल एक कारक है, न कि अंतिम निर्धारक।इसका महत्व क्या है?आध्यात्मिक महत्व:उत्तरायण और दक्षिणायन का चक्र मनुष्य को प्रकृति के साथ संतुलन में जीने की प्रेरणा देता है। यह समय के महत्व और कर्मों के प्रभाव को समझने में मदद करता है।यह मान्यता मनुष्य को जीवन में साधना, दान, और धर्म के कार्य करने के लिए प्रेरित करती है ताकि मृत्यु का समय चाहे जो हो, आत्मा उच्च स्तर की ओर जाए।ज्योतिषीय महत्व:सूर्य की गति (उत्तरायण और दक्षिणायन) ग्रहों और नक्षत्रों के प्रभाव को प्रभावित करती है। उत्तरायण में सूर्य की प्रबलता आत्मा को उच्च ऊर्जा प्रदान करती है, जबकि दक्षिणायन में चंद्रमा और पितृ कार्यों का प्रभाव बढ़ता है।यह चक्र कुंडली में सूर्य, शनि, और राहु/केतु के प्रभाव को समझने में मदद करता है।सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व:उत्तरायण में मकर संक्रांति, पोंगल जैसे त्योहार और दक्षिणायन में पितृ पक्ष, गुरु पूर्णिमा जैसे अवसर इस चक्र को सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण बनाते हैं।यह मान्यता समाज को एकजुट करती है और जीवन के विभिन्न पहलुओं (कृषि, धर्म, साधना) को समय के साथ जोड़ती है। मृत्यु का समय और मोक्ष: एक संतुलित दृष्टिकोणमृत्यु अनियंत्रित, लेकिन कर्म नियंत्रित:यह सत्य है कि मृत्यु का समय हमारे हाथ में नहीं है। लेकिन हिंदू दर्शन कहता है कि जीवन में किए गए कर्म और साधना मृत्यु के समय के प्रभाव को कम कर सकते हैं।एक संत या साधक, जो जीवन में भक्ति और कर्म से मुक्त हो चुका है, उसे उत्तरायण या दक्षिणायन का बंधन नहीं बाँधता। उदाहरण के लिए, भगवान राम या श्रीकृष्ण की मृत्यु का समय ज्योतिषीय रूप से विश्लेषित नहीं किया जाता, क्योंकि वे स्वयं मुक्त आत्माएँ थे।भीष्म और कर्ण का उदाहरण:भीष्म ने उत्तरायण चुना क्योंकि उनकी इच्छामृत्यु की शक्ति थी, और वे मोक्ष के लिए ज्योतिषीय समय का लाभ उठाना चाहते थे। यह उनकी साधना और जागरूकता का परिणाम था।कर्ण की मृत्यु दक्षिणायन में हुई, लेकिन उनकी उदारता और धर्मनिष्ठा ने उन्हें उच्च स्थान दिलाया। यह दर्शाता है कि कर्म और साधना समय से अधिक महत्वपूर्ण हैं।संतों के लिए:एक संत, जो आत्म-साक्षात्कार प्राप्त कर चुका है, उसे मृत्यु का समय बाधित नहीं करता। गीता में कहा गया है कि जो भगवान में लीन है, वह किसी भी समय मोक्ष प्राप्त कर सकता है निष्कर्षउत्तरायण-दक्षिणायन की मान्यता फिजूल नहीं:यह मान्यता प्रकृति, कर्म, और आध्यात्मिकता के बीच संतुलन को दर्शाती है। यह मनुष्य को जीवन में सही कर्म करने और साधना की ओर प्रेरित करती है।यह ज्योतिषीय और आध्यात्मिक मार्गदर्शन है, जो सामान्य मनुष्यों के लिए उपयोगी है, लेकिन संतों या साधकों पर लागू नहीं होता।मृत्यु का समय और मोक्ष:मृत्यु का समय अनियंत्रित है, लेकिन कर्म और साधना नियंत्रित हैं। एक साधक अपने जीवनकाल में मोक्ष के योग्य बन सकता है, चाहे मृत्यु किसी भी समय हो।संतों के लिए, जो पहले ही कर्म बंधनों से मुक्त हो चुके हैं, उत्तरायण या दक्षिणायन का कोई बंधन नहीं है।महत्व:यह मान्यता जीवन को अर्थ देती है, कर्मों के प्रति जागरूकता बढ़ाती है, और प्रकृति के साथ तालमेल बिठाने में मदद करती है।यह समय के चक्र को समझने और जीवन को सार्थक बनाने का एक दार्शनिक और ज्योतिषीय दृष्टिकोण प्रदान करती है।