भारतीय शास्त्रों में समाधि: आत्मा और ब्रह्म के दिव्य एकत्व की यात्रा

आत्मा के सफर पर समाधि के संदर्भ में विभिन्न भारतीय आध्यात्मिक परंपराएँ और शास्त्र कुछ इस प्रकार दृष्टिपात करती हैं:1. उपनिषदों का दृष्टिकोणउपनिषदों में आत्मा (आत्मन्) को अमृत और सनातन बताया गया है। समाधि को “तत्त्वज्ञान” या “मौन स्वरूप ज्ञान” का अनुभव माना गया है। जैसे चैत्वोपनिषद में कहा गया है कि समाधि में मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त के बंधन टूट जाते हैं और आत्मा ब्रह्म के साथ एक हो जाती है। इसका अर्थ है इस पार (भौतिक जगत, जीवात्मा) से उस पार (परमात्मा, ब्रह्म) का संगम।माण्डूक्य उपनिषद में “तमः”, “रजस्”, “सत्” की त्रिविध अवस्थाओं के बाद जो चैतन्य स्वरूप शून्यता में खो जाता है, वही समाधि का सार है।2. भगवद गीता का दृष्टिकोणभगवद्गीता में समाधि को स्थिर बुद्धि योग कहा गया है। यह ध्यान की वह अवस्था है जहाँ व्यक्ति अपनी आत्मा को भौतिक शरीर और मन के बंधनों से ऊपर उठाकर परमात्मा के स्वरूप में लीन कर लेता है। श्रीकृष्ण ने बताया है कि योग योगी को संसार के बंदिशों से मुक्ति दिलाता है, जो समाधि की अवस्था है।श्लोक 6.15–16 में समाधि की स्थिति को निर्गुण, सुखमय, अचल बताया गया है।3. योगसूत्र (पतंजलि)पतंजलि के योगसूत्र के अनुसार समाधि वह अवस्था है जब मन की सभी वृत्तियाँ निरोध हो जाती हैं। यहाँ आत्मा अपनी शुद्ध प्राकृतिक स्थिति में दर्शन करती है। समाधि से व्यक्ति अपनी सीमित चेतना से मुक्त होकर विशुद्ध आत्मा स्वरूप में प्रवेश करता है।समाधि भुमिकाएँ जैसे निष्प्रज्ञ समाधि (जहाँ पूर्ण अविद्या के परे आत्मा केवल स्वयं को देखती है) और सब्जेक्टिव समाधि (जहाँ ज्ञान की धारणा बनी रहती है) बताई गई हैं।4. तत्त्वमीमांसा और वेदांतवेदांत के अनुसार आत्मा का सफर जन्म-मरण चक्र से होकर गुजरता है, लेकिन समाधि की अवस्था में यह यात्रा ख़त्म हो जाती है। आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में ब्रह्म के साथ अभिन्न हो जाती है। इस अवस्था को मोक्ष या निर्वाण भी कहते हैं।शंकराचार्य के अनुसार समाधि एक ऐसा अनुभव है जहाँ जीव-आत्मा और ब्रह्म पूरी तरह से एक हो जाते हैं और द्वैत समाप्त हो जाता है।5. भक्ति मार्ग और sufism का दृष्टिकोणभक्ति परंपराओं में, जैसे सन्त तुकाराम, नरसिम्हा मीणा आदि, समाधि आत्मा का परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण और प्रेम का अनुभव है। यहां से “इस पार से उस पार” का अर्थ होता है सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर परमपिता के सान्निध्य में लीन होना।सूफी मत में भी “मुराद” और “मुरीद” के माध्यम से आत्मा की यात्रा और परमात्मा के साथ मिलन का गूढ़ अर्थ होता है, जो समाधि या एकत्व की स्थिति को सूचित करता है।

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