साक्षी आत्मा और भोग का रहस्य: वेदांत, बौद्ध व संत दृष्टि

आदरणीय राठौर अंकल मेरी समझ के अनुसार आत्मा के साथ जो सूक्ष्म शरीर रहता है वही सुख दुख स्वर्ग नरक को अनुभव करता है क्योंकि आत्मा इनसे पर है स्वर्ग–नरक के प्रश्न को तीन प्रमुख दृष्टिकोणों से देखें: वेदांत, बौद्ध दर्शन, और संत/कबीर परम्परा।वेदांत दृष्टिआत्मा का स्वरूप: आत्मा नित्य, शुद्ध, साक्षी और आनन्दस्वरूप है। वह न सुख का भोक्ता है, न दुख का।कर्मफल का भोग: जब आत्मा देह–अहंकार से तादात्म्य कर लेती है, तब मन-बुद्धि के अनुभवों को “अपना” मान लेती है। यही भोग कहलाता है।स्वर्ग–नरक: पौराणिक वेदांत कहता है कि पुण्य से स्वर्गलोक और पाप से नरकलोक मिलते हैं, किंतु अद्वैत वेदांत कहता है कि ये सब केवल मनो-अवस्थाएँ हैं। वास्तविक लक्ष्य स्वर्ग-नरक से परे जाकर मोक्ष (आत्म-बोध) है।शास्त्रीय कथन: गीता 13.21 में कहा गया है— आत्मा प्रकृति के गुणों के साथ जुड़कर सुख-दुख का अनुभव करती प्रतीत होती है; वास्तव में वह केवल साक्षी है।बौद्ध दृष्टिअनात्म सिद्धान्त: आत्मा (आत्मन) जैसी स्थायी सत्ता का निषेध किया गया है। यहाँ “जीव” नहीं, बल्कि “पाँच स्कन्ध” (रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान) कर्म-फल चक्र में फंसते हैं।कर्मफल भोग: कर्म के परिणाम रूपी संस्कार जन्म-जन्मान्तर में अनुभव होते हैं। “स्वर्ग” और “नरक” असली स्थान नहीं, बल्कि कर्मानुसार उत्पन्न होने वाली मानसिक–अस्तित्वगत स्थितियाँ हैं।भूलोक पर स्वर्ग–नरक: बौद्ध दृष्टि में नरक का अर्थ है — तीव्र दुःखपूर्ण मन-स्थिति, और स्वर्ग का अर्थ: अत्यधिक आनंदकारी अवस्था। ये दुस्साध्य रूप से यथार्थ लगने वाले चक्र हैं, यहीं संसार में।संत/कबीर परम्परामुख्य शिक्षा: स्वर्ग और नरक कोई दूर के लोक नहीं, वे यहीं हैं।कबीर कहते हैं — “स्वर्ग-नरक का बरतन दोऊ हियां ही पाए।” यानी यदि मन शान्त, निर्मल है, तो वही स्वर्ग है; और यदि मन वासनाओं व दुःख से ग्रस्त है, तो वही नरक है।साक्षात दृष्टि: पुण्य से बड़ा न स्वर्ग, और पाप से बड़ा न नरक। अर्थात अपने कर्मफल का अनुभव इंसान को यहीं मिलता है।आत्मा का स्वरूप: आत्मा न कभी दुखी होती है, न सुखी। लेकिन अज्ञान में उलझकर जब मन से तादात्म्य करती है, तभी भोग और पीड़ा अनुभव होती है।जिज्ञासा हमेशा रहती है कि आत्मा कर्मों के भुगतान के लिए भोग योनि में ही भुगतान कर सकती है आत्मा का तो नैसर्गिक गुण उल्लसित रहना है और आत्मा न स्वयं भोगने का आनंद लेती है ना दुखी होती है, हां जरूर भ्रमित हो जाती है।जो यह सोचने पर प्रेरित करता है कि स्वर्ग या नरक भूलोक पर ही होता है। ऊपरी स्वर्ग या नरक लोक केवल एक परिकल्पना लगती है फिर भी धर्म और वेद क्या झट है उन पर गौर करना जरूरी है मेरी सोच के अनुसार जो।पवित्र आत्माएं होती है वो कर्म फल गुरु के आदेश से कम अधिक फल प्राप्त कर उच्च योनि ओर लोक में जाति है जो निकृष्ट होती है वो कर्म फल भोगने के लिए भूलोक पितृ लोक में रह जाती है और कर्म के अनुसार फिर कर्म कर उच्चता प्राप्त कर फिरजन्म ।लेती है इसमे सूक्ष्म शरीर और आत्मा का संबंध बना रहता है इसके अलावा हिन्दू, बौद्ध, और सूफ़ी सभी परम्पराओं में यह प्रश्न उठता रहा है कि आत्मा स्वयं कर्मफल “भोगती” है या भोग का अनुभव केवल शरीर-मन (सूक्ष्म शरीर) के माध्यम से ही सम्भव है।आत्मा और कर्मफल का सम्बन्धवेदांत और उपनिषदों के अनुसार आत्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त है। उसका स्वभाव आनन्द स्वरूप है, वह न दुखी होती है न सुखी।”भोग” वास्तव में आत्मा नहीं करती, बल्कि अहंकार-संयुक्त मन और सूक्ष्म शरीर भोग का अनुभव करते हैं। आत्मा केवल साक्षी (witness) होती है, लेकिन अज्ञान से देहाभिमान में पड़कर अपने को कर्ता और भोक्ता मान लेती है।गीता (13.21) में यही कहा है – “पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्” — आत्मा जब प्रकृति से जुड़ती है, तब गुणों से उत्पन्न सुख-दुख का भोक्ता बनती प्रतीत होती है।स्वर्ग–नरक का प्रश्नपौराणिक दृष्टिकोण: शुभ कर्म से जीव सूक्ष्म शरीर के साथ स्वर्ग लोक में जाता है और पुण्य क्षीण होने पर पुनः मानवी जन्म में लौटता है। इसी प्रकार दुष्कर्म के लिए नरक लोक मिलने की कथा है।दार्शनिक दृष्टिकोण: यह स्वर्ग-नरक मानसिक और अनुभवजन्य अवस्थाएँ भी हैं। स्वर्ग और नरक एक “मन की परियोजना” हैं, जैसे — सुखमय अवस्था को स्वर्ग और दुखमय अवस्था को नरक कहा जा सकता है।सांख्य–योग परिप्रेक्ष्य: भौतिक “लोक” गौण हैं; असली नरक या स्वर्ग मन की अवस्था और चित्त का संस्कार है। यही कारण है कि संत-कबीर और अन्य संत बार-बार कहते हैं कि नरक-स्वर्ग यहीं अनुभव होते हैं — “ज्यों करनी त्यों भरनी।”आत्मा की “भ्रम” अवस्थाआत्मा सीधे भोगती नहीं है, मगर अहंकार और मन से तादात्म्य होने पर “मुझे सुख मिला” या “मुझे दुख हुआ” का अनुभव होता है।यही अज्ञान (अविद्या) जीव को भोक्ता बना देता है। वास्तविकता में आत्मा सदा शुद्ध और उल्लसित है।उपनिषदों में इसे “साक्षीभाव” कहा गया है — जो केवल देखता है, पर करता नहीं।निष्कर्षआपकी धारणा — कि स्वर्ग और नरक वास्तव में भूलोक के अनुभव ही हैं, तथा ऊपर के लोक अधिकतर परिकल्पनाएँ हैं — वेदांत-योग और संत परम्परा के निकट है। पौराणिक कथाएँ साधारण जनमानस के लिए “लोक” रूप में वर्णन करती हैं, पर तत्वज्ञान कहता है कि कर्मफल का भोग शरीर-मन रूपी माध्यम से यहीं होता है, आत्मा तो सदैव साक्षी और आनंदस्वरूप ही है।

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