उपनिषदों में यह सिद्धांत अद्वैत (एकत्व) के रूप में स्पष्ट किया गया है।कुछ प्रमुख उद्धरण इस भाव को प्रत्यक्ष रूप में प्रकट करते हैं:छांदोग्य उपनिषद (6.8.7): “तत् त्वम् असि” — “वह तू ही है।”इसका अर्थ है कि जिस परम सत्य को तू बाहर खोजता है, वही तेरे भीतर विद्यमान है।बृहदारण्यक उपनिषद (1.4.10): “अहं ब्रह्मास्मि” — “मैं ही ब्रह्म हूँ।”जब “मैं” का बोध सीमित देह या अहं तक नहीं रहता, तब वही ब्रह्म, वही ईश्वर अनुभव होता है।माण्डूक्य उपनिषद (7): “प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं” — जहाँ संसार की समस्त द्वैतता शांत हो जाती है, वहीं अद्वैत सत्य है।इन सूत्रों में “खुद को जानना” का अर्थ आत्मसाक्षात्कार है, और “उसे जानना” ब्रह्मज्ञान। पर जब दोनों की पहचान एक हो जाती है, तो केवल एक निरंतर चेतना रह जाती है — वही “अब क्या बचा” की स्थिति है।कबीर का दृष्टिकोणकबीर ने इसी भाव को लोकभाषा में अत्यंत सरल पर गूढ़ रूप में अभिव्यक्त किया:”जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहीं।”जब ‘मैं’ का अहं समाप्त हुआ, तब वही ईश्वर अनुभव हुआ।”पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय;ढाई आखर प्रेम का पड़े सो पंडित होय।”यहाँ “प्रेम” वह स्थिति है जहाँ ज्ञाता और ज्ञेय एक हो जाते हैं — जैसे आत्मा और ब्रह्म, ज्वाला और प्रकाश।कबीर के लिए आत्मा और परमात्मा का मिलन कोई “प्राप्ति” नहीं, बल्कि “लोप” है — अहंकार का लोप। जब सब कुछ उसी में विलीन है, तब खोज के लिए कोई “दूसरा” नहीं बचता।निष्कर्षइसलिए “खुद को जान के उसे जानने लगे, जब उसे जान लिया तो अब क्या बचा” का दार्शनिक अर्थ यह है कि आत्मा ही ब्रह्म है।यह स्थिति त्रिपुटी-विलय की है —ज्ञाता (जो जानता है),ज्ञान (जानने की क्रिया),ज्ञेय (जिसे जाना जाता है) —तीनों एक ही सत्ता में लीन हो जाते हैं। यही मोक्ष, कैवल्य या फना‑ब‑अल्लाह की अवस्था है — जहाँ कुछ भी शेष नहीं, केवल वह है।उपनिषदों में यह सिद्धांत अद्वैत (एकत्व) के रूप में स्पष्ट किया गया है।कुछ प्रमुख उद्धरण इस भाव को प्रत्यक्ष रूप में प्रकट करते हैं:छांदोग्य उपनिषद (6.8.7): “तत् त्वम् असि” — “वह तू ही है।”इसका अर्थ है कि जिस परम सत्य को तू बाहर खोजता है, वही तेरे भीतर विद्यमान है।बृहदारण्यक उपनिषद (1.4.10): “अहं ब्रह्मास्मि” — “मैं ही ब्रह्म हूँ।”जब “मैं” का बोध सीमित देह या अहं तक नहीं रहता, तब वही ब्रह्म, वही ईश्वर अनुभव होता है।माण्डूक्य उपनिषद (7): “प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं” — जहाँ संसार की समस्त द्वैतता शांत हो जाती है, वहीं अद्वैत सत्य है।इन सूत्रों में “खुद को जानना” का अर्थ आत्मसाक्षात्कार है, और “उसे जानना” ब्रह्मज्ञान। पर जब दोनों की पहचान एक हो जाती है, तो केवल एक निरंतर चेतना रह जाती है — वही “अब क्या बचा” की स्थिति है।कबीर का दृष्टिकोणकबीर ने इसी भाव को लोकभाषा में अत्यंत सरल पर गूढ़ रूप में अभिव्यक्त किया:”जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहीं।”जब ‘मैं’ का अहं समाप्त हुआ, तब वही ईश्वर अनुभव हुआ।”पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय;ढाई आखर प्रेम का पड़े सो पंडित होय।”यहाँ “प्रेम” वह स्थिति है जहाँ ज्ञाता और ज्ञेय एक हो जाते हैं — जैसे आत्मा और ब्रह्म, ज्वाला और प्रकाश।कबीर के लिए आत्मा और परमात्मा का मिलन कोई “प्राप्ति” नहीं, बल्कि “लोप” है — अहंकार का लोप। जब सब कुछ उसी में विलीन है, तब खोज के लिए कोई “दूसरा” नहीं बचता।निष्कर्षइसलिए “खुद को जान के उसे जानने लगे, जब उसे जान लिया तो अब क्या बचा” का दार्शनिक अर्थ यह है कि आत्मा ही ब्रह्म है।यह स्थिति त्रिपुटी-विलय की है —ज्ञाता (जो जानता है),ज्ञान (जानने की क्रिया),ज्ञेय (जिसे जाना जाता है) —तीनों एक ही सत्ता में लीन हो जाते हैं। यही मोक्ष, कैवल्य या फना‑ब‑अल्लाह की अवस्था है — जहाँ कुछ भी शेष नहीं, केवल वह है।