एकत्ववाद का अर्थ है “एकता का सिद्धांत” या “मौनवाद” जिसमें सभी वस्तुओं, जीवों, और घटनाओं की वास्तविकता में एक ही मूल तत्व या सार होता है। यह दर्शन उपनिषदों में पाया जाता है जहां इसे ब्रह्म और आत्मा के समानता के रूप में समझा गया है। एकत्ववाद के अनुसार, इस जगत के सभी विविध रूपों के पीछे एक मूल तत्व की एकात्मकता निहित होती है। इस विचार में बाहरी विविधता और अंतर को केवल छद्म माना जाता है और मौलिकता में सब कुछ एक ही है। इसे वेदांत दर्शन का मूल सिद्धांत भी माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि आत्मा, ब्रह्म, और सृष्टि में कोई भेद नहीं है, बल्कि वे एक हैं। यह सिद्धांत संसार को एक संपूर्णता में देखने की शिक्षा देता है, जहां हर चीज़ परस्पर संबंधित और अंतर्निहित रूप से जुड़ी होती हैएकत्ववाद के मुख्य बिंदुयह सिद्धांत मानता है कि विश्व की जड़ एकमात्र तत्व है जो सभी भेदों से स्वतंत्र और सर्वव्यापी है।भौतिक और आध्यात्मिक जगत का मूल तत्त्व एक जैसा है।बाहरी विविधता केवल सतही है, वास्तविकता में सब कुछ एक है।यह दृष्टिकोण उपनिषदों और वेदांत ग्रंथों में प्रमुख है, जहां ब्रह्म और आत्मा की एकरूपता को बताया गया है।इस प्रकार, एकत्ववाद एक ऐसी दर्शनशास्त्र है जो विविधता के पीछे एकता की अवधारणा को प्रकट करती है और इसे भारतीय धार्मिक-दार्शनिक परंपरा में एक महत्वपूर्ण सिद्धांत माना जाता है।त्रिपुटी का अर्थ है “तीन वस्तुओं का समूह” या तीनों का समन्वय। दर्शनशास्त्र और अध्यात्म में यह उस त्रिओ के लिए प्रयुक्त होता है जो एक दूसरे से संबंधित होते हैं। यह त्रिपुटी विभिन्न प्रकार की हो सकती है, जैसे ज्ञाता, ज्ञेय, और ज्ञान; या ध्याता, ध्येय, और ध्यान; द्रष्टा, दृश्य, और दर्शन आदि।विशेष रूप से, त्रिपुटी का उपयोग आत्म-ज्ञान या आध्यात्मिक ध्यान के संदर्भ में होता है जहाँ ध्यान करने वाला (ज्ञाता), जिस पर ध्यान किया जा रहा है (ज्ञेय), और वह ज्ञान या ध्यान स्वयं (ज्ञान) एक साथ जुड़े होते हैं। ध्यान की अंतिम अवस्था में यह त्रिपुटी लुप्त हो जाती है, और ध्यान करने वाला परमेश्वर के साथ एकरूप हो जाता है।त्रिपुटी में यह भी कहा जाता है कि सांसारिक देखने में द्रष्टा, दृश्य, और दर्शन ये तीन होते हैं; लेकिन आत्म-ज्ञान में यह त्रिपुटी नहीं होती क्योंकि वह ज्ञान स्वयंसिद्ध है और किसी माध्यम के बिना होता है।इस प्रकार, त्रिपुटी दर्शन की वह संज्ञा है जो तीन तत्वों के पारस्परिक संबंध को दर्शाती है, खासकर आत्मा, जीव और जगत या ज्ञाता, ज्ञेय, और ज्ञान जैसे तत्वों के संदर्भ मेंत्रिपुटीवाद, अद्वैतवाद और द्वैतवाद तीनों भारतीय दर्शन के महत्वपूर्ण सिद्धांत हैं जो ब्रह्म, जीव और जगत के संबंध को भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से समझाते हैं। इन तीनों का तुलनात्मक विश्लेषण निम्न है: त्रिपुटीवादत्रिपुटीवाद का मुख्य सिद्धांत है तीनों तत्वों का अस्तित्व—ज्ञाता (जीवात्मा), ज्ञेय (जगत् या विश्व), और ज्ञान (ज्ञान या ज्ञान की क्रिया)—जो परस्पर संबंधित होते हुए भी भिन्न होते हैं।दर्शन में यह कहा जाता है कि ये तीनों-साथ होते हैं लेकिन स्वतंत्र नहीं होते। त्रिपुटी का अनुभव ध्यान या आत्म-ज्ञान में होता है, जहां ध्यानकर्ता, ध्यान्य और ध्यान की एकरूपता होती है, लेकिन सामान्य दृष्टि में इन्हें पृथक माना जाता है।त्रिपुटीवाद एक मध्य मार्ग की तरह है, जो अद्वैत और द्वैत दोनों की कुछ अवधारणाओं को सम्मिलित करता है। अद्वैतवादअद्वैतवाद के अनुसार ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, और जगत तथा जीवात्मा उसी का रूप मात्र हैं। हर विभेद और भेद माया (मिथ्या) के कारण हैं।अद्वैत में आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है; वे एक ही वास्तविकता के दो पहलू हैं। इसी कारण इसे “नॉन-ड्युअलिज़्म” कहा जाता है।आदि शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित यह दर्शन “सर्वं खल्विदं ब्रह्म” (सब कुछ ब्रह्म है) पर आधारित है।. द्वैतवादद्वैतवाद में जीव, जगत और ब्रह्म को स्वतंत्र, स्थिर और निरपेक्ष अस्तित्व माना जाता है। इनके बीच पूर्ण भेद होता है।इस दर्शन के प्रवर्तक माध्वाचार्य हैं, जिन्होंने पाँच प्रकार के नित्य भेदों का सिद्धांत दिया है।द्वैत में ईश्वर (परमात्मा), जीव और जगत त्रय को पूर्णतः भिन्न माना जाता है, और माया की अवधारणा को अस्वीकार किया जाता है। यह दर्शन “ड्युअलिज़्म या “ड्यूल अस्थित्व” के सिद्धांत पर आधारित है।त्रिपुटीवाद आमतौर पर मध्यस्थ या समन्वयवादी दृष्टिकोण के रूप में देखा जा सकता है, जो जीव, जगत और ज्ञान के त्रिकालात्मक संबंधों को स्वीकार करता है, जबकि अद्वैत और द्वैत उसकी तुलना में अधिक कट्टर और संप्रदायवादी मत हैं।“एकत्ववाद” (Ekatvavāda) और “त्रिपुटिवाद” (Tripuṭivāda) — ये शब्द मुख्य रूप से भारतीय दर्शन, खासकर अद्वैत वेदांत और योग-तंत्र परंपरा में आते हैं। मैं सरल और गहराई से समझा देता हूँ।एकत्ववाद (Ekatvavāda)अर्थ: “सब कुछ एक है” – यही भाव।मूल दृष्टिकोण: जीव (व्यक्ति), जगत (दुनिया), और ईश्वर (ब्रह्म) – इन तीनों में कोई वास्तविक भेद नहीं है।अद्वैत वेदांत का दृष्टिकोण:ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है।जगत मायिक (अस्थायी) है।जीव और ब्रह्म में कोई भेद नहीं – ‘अहं ब्रह्मास्मि’।अनुभव का अंतिम सत्य एकत्व है।त्रिपुटिवाद (Tripuṭivāda)त्रिपुटि (त्रय):कर्ता (ज्ञाता),ज्ञान (ज्ञेय),ज्ञान का साधन (प्रमाण / ज्ञान-क्रिया)।→ या भक्ति में — उपासक, उपास्य और उपासना।मूल दृष्टिकोण: जब तक अनुभव या साधना में कर्ता, क्रिया और फल तीनों अलग-अलग प्रतीत होते हैं, तब तक त्रिपुटि है।वेदांत मेंअज्ञान के कारण यह तीनfold विभाजन दिखता है।जब ज्ञान होता है, यह त्रिपुटि मिट जाती है और केवल एकत्व शेष रहता है।योग व तंत्र में:साधना के आरंभिक चरण मेंउपासक–उपास्य–उपासना अलग-अलग माने जाते हैं।सिद्धि के बाद तीनों का विलय हो जाता है – यानि त्रिपुटिवाद से एकत्ववाद की ओर।दोनों का संबंधत्रिपुटिवाद अनुभव/साधना का आरंभिक, द्वैतमय दृष्टिकोण है।एकत्ववाद अनुभव का चरम, अद्वैत दृष्टिकोण है।यह क्रमशः ऐसे है:पहले हम देखते हैं “मैं” और “ईश्वर” अलग हैं → त्रिपुटि।फिर साधना और ज्ञान से यह भेद मिटता है → एकत्व।सरल उदाहरणत्रिपुटि:“मैं” (पढ़ने वाला),“ज्ञान” (जो विषय पढ़ा जा रहा है),“क्रिया” (पढ़ने की प्रक्रिया)।एकत्व:गहरे ध्यान में सब विलीन होकर केवल शुद्ध चैतन्य बचता है।एकत्ववाद = सब कुछ एक चैतन्य है।त्रिपुटिवाद = अनुभव के तीन घटक (ज्ञाता–ज्ञेय–ज्ञान) अलग-अलग प्रतीत होते हैं।लक्ष्य = त्रिपुटिवाद से उठकर एकत्ववाद की अनुभूति करना।