कर्म, धर्म और गृहस्थ जीवन का हिंदू दर्शन में विशेष महत्व है, क्योंकि ये तीनों एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हैं और जीवन के उद्देश्य (पुतवरुषार्थ: धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) को प्राप्त करने में सहायक हैं।ये बात जब भी मन मे आती है तो लगता है जो गृहस्थ रह कर तपश्या मनुष्य करता है वह अलग ही होती है और कर्म करते हुवे अपने को गृहस्थ धर्म का अपनी योग्यता के अनुसार निभाना ये मनुष्य के लिए विशेष महत्व रखता है मांनव जनम लेता है और परिवार में उसका पालन पोषण होता है बड़ा होकर चाहे पुरुष हो या स्त्री शिक्षस लेते है और शादी के बाद अनजान परिवार में शादी कर पति पत्नी बन के जो ग्रहड्थ कि कर्मो के साथ जीवन जीते है ये अनूठा बन्धन ही हमे कर्म से बांध कर प्रेम और कर्म में बढ़ता है और ईश वॉर की तरह से गृहस्थ में पति पत्नी बन माता पिता और परिवार का अपने बल पर संचालित करता है और पति पत्नी डोंयो का अटूट साहस ही इसमें योगदान देता है पत्नी अपना निजी घर माता पिता को छोड़ एक अलग परिवार से जुड़ जाती है और मर्त्य तक उसी परिवार को अपना मां अपना धर्म का पालन करती है इससे बड़ा गृहस्थ में त्याग नही हो सकता और फिर अपने परिवार में स्वम् के बच्चों को वो संस्कार देती है जिससे परिवार फल फूलता है और मसान सम्मान करना सीखता है ओर गृहस्थ धर्म चार आश्रम में से एक है जबकि हिंदू धर्म में चार आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास) में से एक है और इसे जीवन का आधार माना जाता है। इसकव इस तरह से समझ सकते है इसमे पहला कर्म और धर्म का महत्व दिया गया है और इसमें भी कर्म पहले हैहिंदू दर्शन में कर्म का अर्थ है कर्तव्य, कार्य और नैतिक दायित्व। यह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में धर्म के अनुरूप होना चाहिए। कर्म न केवल व्यक्तिगत विकास के लिए, बल्कि समाज और विश्व के कल्याण के लिए भी महत्वपूर्ण है। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं, “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” (कर्म में तेरा अधिकार है, फल में नहीं), जो यह दर्शाता है कि कर्म निष्काम भाव से करना चाहिए i इसके बाद आता है धर्म: यहां धर्म का अर्थ है नैतिकता, कर्तव्य और जीवन का सही मार्ग। यह व्यक्ति को सत्य, अहिंसा, दया, और समाज के प्रति जिम्मेदारी का पालन करने की प्रेरणा देता है। गृहस्थ जीवन में धर्म का पालन परिवार, समाज और आत्मा के प्रति कर्तव्यों को संतुलित करने में होता है पर कर्म और द्धर्म एक दूसरे के पूरक है इनमे भी ।संबंध है कर्म और धर्म एक-दूसरे के पूरक हैं। धर्म कर्म को दिशा देता है, और कर्म धर्म को साकार करता है। गृहस्थ जीवन में यह संतुलन विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह वह अवस्था है जहां व्यक्ति समाज और परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को निभाता है. गृहस्थ जीवन का विशेष महत्वगृहस्थ आश्रम को हिंदू धर्म में सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि:सामाजिक आधार: गृहस्थ जीवन समाज का आधार है। यह परिवार, शिक्षा, संस्कृति और धर्म को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का माध्यम है।धर्म का पालन: गृहस्थ जीवन में व्यक्ति यज्ञ, दान, सेवा और अन्य धार्मिक कृत्यों के माध्यम से धर्म का पालन करता है। यह आश्रम अन्य आश्रमों (ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ, संन्यास) को आर्थिक और सामाजिक रूप से समर्थन देता है।ओर : गृहस्थ जीवन में व्यक्ति धर्म, अर्थ (आर्थिक समृद्धि) और काम (इच्छाओं की पूर्ति) का संतुलन बनाए रखता है, जो अंततः मोक्ष की ओर ले जाता है ओर ।कर्तव्यों का निर्वहन करता है गृहस्थ व्यक्ति पितृऋण, देवऋण और ऋषिऋण का निर्वहन करता है। यह परिवार, समाज और पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी निभाने का समय है गृहस्थ में । वह व्यक्ति है जो आत्मज्ञान, भक्ति, और परम सत्य की खोज में लीन रहता है और संतत्व का आधार धर्म की मान्यताओं से अधिक आध्यात्मिकता, निःस्वार्थता और सत्य के प्रति समर्पण पर निर्भर करता है गृहस्थ में संत: होना हमारे हिंदू धर्म में कई उदाहरण हैं जहां गृहस्थ जीवन जीने वाले व्यक्ति संत बने। जैसे, राजा जनक, जो गृहस्थ थे, लेकिन उनकी आध्यात्मिकता और कर्मयोग के कारण उन्हें “विदेही” कहा गया। इसी तरह, संत तुकाराम और मीराबाई जैसे भक्तों ने गृहस्थ जीवन में रहते हुए भक्ति और आध्यात्मिक ऊंचाइयों को प्राप्त किया।हिंदू धर्म की मान्यताओं को न मानने वाला संत: हिंदू धर्म उदार और समावेशी है। यह कर्म, भक्ति, और ज्ञान के विभिन्न मार्गों को स्वीकार करता है। यदि कोई गृहस्थ हिंदू धर्म की परंपरागत मान्यताओं (जैसे मूर्तिपूजा, कर्मकांड आदि) में विस्वास नही रखता ओर मन से नही मानता, लेकिन सत्य, प्रेम, और निःस्वार्थता के मार्ग पर चलता है, तो वह संतत्व प्राप्त कर सकता है। उदाहरण के लिए, कबीर और नानक जैसे संतों ने परंपरागत कर्मकांडों पर कम जोर दिया और भक्ति व नैतिकता को प्राथमिकता दी।आवश्यक गुण: संतत्व के लिए आवश्यक है आत्म-जागरूकता, करुणा, और परम सत्य के प्रति समर्पण। यह गुण किसी भी धर्म या मान्यता से परे हैं अब हम सोचते है कि क्या गृहस्थी कर्म छोड़कर संत बन सकता हैहिंदू दर्शन में संत बनने के लिए गृहस्थी कर्म छोड़ना आवश्यक नहीं है। हालांकि, कुछ लोग संन्यास आश्रम में प्रवेश करते हैं, लेकिन यह एकमात्र मार्ग नहीं है।गृहस्थी में संतत्व: गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी व्यक्ति निष्काम कर्म, भक्ति और ध्यान के माध्यम से संतत्व प्राप्त कर सकता है। उदाहरण के लिए, गीता में कर्मयोग और भक्तियोग का मार्ग गृहस्थों के लिए ही बताया गया है। राजा जनक और संत तुकाराम इसके जीवंत उदाहरण हैं।संन्यास और गृहस्थी का अंतर: संन्यास में व्यक्ति सांसारिक बंधनों को त्याग देता है, लेकिन गृहस्थी में व्यक्ति इन बंधनों के बीच रहकर भी आध्यात्मिकता को जी सकता है। गृहस्थी छोड़ना संतत्व का आधार नहीं है; यह मन की शुद्धता और आत्म-ज्ञान पर निर्भर करता है।आधुनिक परिप्रेक्ष्य: आज के समय में, कई लोग गृहस्थ जीवन में रहते हुए ध्यान, योग, और सेवा के माध्यम से आध्यात्मिक जीवन जीते हैं। जैसे, मेरे पिता संत राधामोहन लाल जी संत ठाकुर राम सिंहजी संत श्रीमाली व श्री भारत भूषण जी शर्मा दुर्गादासजी अनेक धार्मिक व्यक्ति जिन्हें हम जानते नही पर गृहस्थ में रह कर संत पद तक पहूचे अन्य गुरु जो हुवे वो भी हमे गृहस्थ जीवन को आध्यात्मिकता के साथ जोड़ने की प्रेरणा देते हैं। मेरी सोच के अनुसार कर्म और धर्म गृहस्थ जीवन में इसलिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि ये व्यक्ति को नैतिकता, कर्तव्य और आध्यात्मिकता के साथ जीने की प्रेरणा देते हैं। गृहस्थ जीवन समाज और धर्म का आधार है, जो व्यक्ति को पुरुषार्थों की प्राप्ति में सहायता करता है। गृहस्थी में संत बनना संभव है, चाहे वह हिंदू धर्म की परंपरागत मान्यताओं को माने या न माने, बशर्ते वह सत्य, करुणा और आत्म-जागरूकता के मार्ग पर चले। गृहस्थी कर्म छोड़ना संतत्व के लिए आवश्यक नहीं है; यह मन की शुद्धता और निःस्वार्थ कर्म पर निर्भर करता है ।

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