गीता के अनुसार कर्तव्य कर्म और मोक्ष का संबंध निष्काम भाव से है, जहां स्वधर्मानुसार किए गए कर्म फल की आसक्ति त्यागकर बंधनमुक्ति का साधन बनते हैं। श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि कर्तव्य पालन से ही कर्मयोगी संसार के बंधनों से मुक्त होकर परमात्मा को प्राप्त करता है।निष्काम कर्मयोगकर्तव्य कर्म को ईश्वर को समर्पित कर निष्काम भाव से करने पर यह यज्ञ बन जाता है, जो मोक्ष प्रदान करता है। गीता में कहा गया है कि फल की इच्छा से कर्म बंधन देता है, लेकिन अनासक्ति से मुक्ति मिलती है। यह कर्म के प्रति त्याग नहीं, बल्कि आसक्ति का त्याग सिखाता है।प्रमुख श्लोक संदर्भअध्याय 3, श्लोक 9: “इस संसार में कर्मों के सिवा अन्य कोई मार्ग नहीं है।” कर्तव्य से ही प्रकृति के बंधन से मुक्ति ।अध्याय 4, श्लोक 16: कर्म तत्त्व जानकर अशुभ से मुक्ति ।अध्याय 18: यज्ञ, दान, तप और कर्तव्य कभी न त्यागें, ये शुद्धिकारक हैं ।मोक्ष प्राप्ति का मार्गकर्तव्य कर्म धर्म, अर्थ, काम के बाद अंतिम पुरुषार्थ मोक्ष की ओर ले जाता है, जहां आत्मा कर्मफल से विमुक्त हो जाती है । भक्ति और ज्ञान के साथ संयुक्त यह कर्म संसार चक्र तोड़ता है।धर्म जीवन को संतुलित रखने वाली शक्ति है, जिसमें नीति, नियम और आदर्श बंधे होते हैं, जबकि अधर्म मन की मर्जी से होने वाले कर्म या विकर्म पर आधारित है, बिना किसी बंधन के।धर्म का स्वरूपधर्म वह धारण करने वाली शक्ति है जो व्यक्ति, समाज और सृष्टि को स्थिरता प्रदान करती है । इसमें नैतिकता, संयम और करुणा जैसे मूल्य निहित होते हैं, जो आचरण को निर्देशित करते हैं। महाभारत में कहा गया है कि धर्म प्रजा को धारण करता है और सत्य से युक्त होता है ।अधर्म की प्रकृतिअधर्म में कोई नियम या आदर्श नहीं होता, बल्कि सब मनमर्जी के अनुसार कर्म या विकर्म होते हैं। भगवद्गीता में कर्म, विकर्म और अकर्म की गहन गति बताई गई है, जहां धर्म-विरुद्ध कार्य कुकर्म कहलाते हैं । यह व्यक्ति को अनैतिकता की ओर ले जाता है, बिना किसी उत्तरदायित्व के।कर्म-धर्म संबंधसच्चा कर्म वही है जो धर्म से युक्त हो; धर्म-विरुद्ध कर्म अधर्म या कुकर्म बन जाता है । गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि जनकल्याण से युक्त कर्म ही धर्म है । इस समन्वय से जीवन को दिशा और अर्थ मिलता है।गीता में कर्तव्य कर्म का अर्थ स्वधर्मानुसार निर्धारित शास्त्रोक्त कार्य है, जो निष्काम भाव से किया जाए तो मोक्ष का साधन बनता है। यह अर्जुन को दिए गए उपदेशों का मूल है, जहां श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म न करने से प्रकृति के बंधन से मुक्ति नहीं मिलती।कर्तव्य कर्म की परिभाषाकर्तव्य कर्म वह है जो व्यक्ति के वर्ण और आश्रम के अनुसार शास्त्रों द्वारा नियुक्त किया गया हो, जैसे क्षत्रिय का युद्ध करना । गीता के तीसरे अध्याय में कहा गया है कि निष्काम कर्मयोग ही श्रेष्ठ है, फल की इच्छा से बंधन उत्पन्न होता है। यह जीवन को संतुलित रखता है और आत्मा को शुद्ध करता है।गीता के प्रमुख श्लोकअध्याय 3, श्लोक 8: “नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकरमभ्य। शरीरयात्रापि च ते न प्रतिष्ठति अकर्मणः।” अर्थात् कर्तव्य कर्म करो, अकर्म से शरीर भी नहीं चलता ।अध्याय 18, श्लोक 47: स्वधर्मे निष्पादन ही श्रेयस्कर, परधर्म ग्रहण से हानि ।ये श्लोक बताते हैं कि कर्तव्य पालन से ही कल्याण होता है।महत्व और फलकर्तव्य कर्म से मनुष्य अपने स्थान पर स्थित रहकर ईश्वर प्राप्ति करता है, बिना फल की आसक्ति के । यह विकर्म से बचाता है और समाज को धारण करता है। निष्काम भाव से किया गया कर्तव्य ही सच्चा कर्मयोग है।
HomeVachanगीता के अनुसार कर्तव्य कर्म और मोक्ष का संबंध निष्काम भाव से है, जहां स्वधर्मानुसार किए गए कर्म फल की आसक्ति त्यागकर बंधनमुक्ति का साधन बनते हैं। श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि कर्तव्य पालन से ही कर्मयोगी संसार के बंधनों से मुक्त होकर परमात्मा को प्राप्त करता है।निष्काम कर्मयोगकर्तव्य कर्म को ईश्वर को समर्पित कर निष्काम भाव से करने पर यह यज्ञ बन जाता है, जो मोक्ष प्रदान करता है। गीता में कहा गया है कि फल की इच्छा से कर्म बंधन देता है, लेकिन अनासक्ति से मुक्ति मिलती है। यह कर्म के प्रति त्याग नहीं, बल्कि आसक्ति का त्याग सिखाता है।प्रमुख श्लोक संदर्भअध्याय 3, श्लोक 9: “इस संसार में कर्मों के सिवा अन्य कोई मार्ग नहीं है।” कर्तव्य से ही प्रकृति के बंधन से मुक्ति ।अध्याय 4, श्लोक 16: कर्म तत्त्व जानकर अशुभ से मुक्ति ।अध्याय 18: यज्ञ, दान, तप और कर्तव्य कभी न त्यागें, ये शुद्धिकारक हैं ।मोक्ष प्राप्ति का मार्गकर्तव्य कर्म धर्म, अर्थ, काम के बाद अंतिम पुरुषार्थ मोक्ष की ओर ले जाता है, जहां आत्मा कर्मफल से विमुक्त हो जाती है । भक्ति और ज्ञान के साथ संयुक्त यह कर्म संसार चक्र तोड़ता है।धर्म जीवन को संतुलित रखने वाली शक्ति है, जिसमें नीति, नियम और आदर्श बंधे होते हैं, जबकि अधर्म मन की मर्जी से होने वाले कर्म या विकर्म पर आधारित है, बिना किसी बंधन के।धर्म का स्वरूपधर्म वह धारण करने वाली शक्ति है जो व्यक्ति, समाज और सृष्टि को स्थिरता प्रदान करती है । इसमें नैतिकता, संयम और करुणा जैसे मूल्य निहित होते हैं, जो आचरण को निर्देशित करते हैं। महाभारत में कहा गया है कि धर्म प्रजा को धारण करता है और सत्य से युक्त होता है ।अधर्म की प्रकृतिअधर्म में कोई नियम या आदर्श नहीं होता, बल्कि सब मनमर्जी के अनुसार कर्म या विकर्म होते हैं। भगवद्गीता में कर्म, विकर्म और अकर्म की गहन गति बताई गई है, जहां धर्म-विरुद्ध कार्य कुकर्म कहलाते हैं । यह व्यक्ति को अनैतिकता की ओर ले जाता है, बिना किसी उत्तरदायित्व के।कर्म-धर्म संबंधसच्चा कर्म वही है जो धर्म से युक्त हो; धर्म-विरुद्ध कर्म अधर्म या कुकर्म बन जाता है । गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि जनकल्याण से युक्त कर्म ही धर्म है । इस समन्वय से जीवन को दिशा और अर्थ मिलता है।गीता में कर्तव्य कर्म का अर्थ स्वधर्मानुसार निर्धारित शास्त्रोक्त कार्य है, जो निष्काम भाव से किया जाए तो मोक्ष का साधन बनता है। यह अर्जुन को दिए गए उपदेशों का मूल है, जहां श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म न करने से प्रकृति के बंधन से मुक्ति नहीं मिलती।कर्तव्य कर्म की परिभाषाकर्तव्य कर्म वह है जो व्यक्ति के वर्ण और आश्रम के अनुसार शास्त्रों द्वारा नियुक्त किया गया हो, जैसे क्षत्रिय का युद्ध करना । गीता के तीसरे अध्याय में कहा गया है कि निष्काम कर्मयोग ही श्रेष्ठ है, फल की इच्छा से बंधन उत्पन्न होता है। यह जीवन को संतुलित रखता है और आत्मा को शुद्ध करता है।गीता के प्रमुख श्लोकअध्याय 3, श्लोक 8: “नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकरमभ्य। शरीरयात्रापि च ते न प्रतिष्ठति अकर्मणः।” अर्थात् कर्तव्य कर्म करो, अकर्म से शरीर भी नहीं चलता ।अध्याय 18, श्लोक 47: स्वधर्मे निष्पादन ही श्रेयस्कर, परधर्म ग्रहण से हानि ।ये श्लोक बताते हैं कि कर्तव्य पालन से ही कल्याण होता है।महत्व और फलकर्तव्य कर्म से मनुष्य अपने स्थान पर स्थित रहकर ईश्वर प्राप्ति करता है, बिना फल की आसक्ति के । यह विकर्म से बचाता है और समाज को धारण करता है। निष्काम भाव से किया गया कर्तव्य ही सच्चा कर्मयोग है।