जब भीतर की आँख खुलती है: गुरु-दर्शन का सच्चा रहस्य

गुरुदेव कह रहे हैं कि— “मुझे वही देख सकता है जो अंधा हो; वही सुन सकता है जो बहरा हो; और वह ही समझ सकता है जो भीतर से फकीर हो।”इसका निहितार्थ यह है कि:“अंधा” वह जो बाहरी दृश्य आकर्षणों और माया को देखकर भ्रमित नहीं होता; जिसने संसार की दृश्यता से अपनी दृष्टि हटा ली है।“बहरा” वह जो बाहरी शोर, प्रशंसा या निंदा से अप्रभावित है— यानी जिसकी श्रवण-शक्ति अब केवल आत्मा के शब्द को सुनती है, संसार के शोर को नहीं।“फकीर दिल” वाला व्यक्ति वह है जो भीतर से निर्मल, एकनिष्ठ, विनम्र और अभाव-रहित है; जिसने ‘मैं’ और ‘मेरा’ की दीवार गिरा दी है।इस प्रकार, गुरु केवल उन्हीं को “प्रकट” होते हैं जो बाह्य-दृष्टि, बाह्य-श्रवण और बाह्य-अहंकार से मुक्त होकर अंतर की दृष्टि और भक्ति की श्रवणशक्ति विकसित करते हैं।गुरुदेव के वचन — “मुझे वो ही देख सकता है जो अंधा हो, सुन सकता है जो बहरा हो, और दिल से फकीर हो” — वास्तव में संत और सूफी परंपराओं में कहे गए एक ही रहस्यमय सत्य को प्रकट करते हैं कि सत्य का दर्शन बाहरी इंद्रियों से नहीं, बल्कि भीतर की निष्काम दृष्टि से होता है।कबीर का दृष्टिकोणसंत कबीर अक्सर “उलटबांसी” (विपरीत प्रतीकों में सत्य का संकेत) में बात करते हैं। उन्होंने कहा था कि आध्यात्मिक जगत में सब उलटा दिखता है— वहाँ सूखा सरोवर लहराता है, बिन हवा के पर्वत उड़ते हैं, और बिना जल के चकवा कलोल करता है यह “अंधे-बहरे-फकीर” के प्रतीकों की तरह है— साधक जब भीतर की आँखें खोलता है, तब बाहर की दृष्टि बंद करनी पड़ती है।कबीर का एक प्रसिद्ध दोहा इस भावना को और स्पष्ट करता है:“जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहीं।सब अंधियारा मिट गया, दीपक देखा माहीं।”यहाँ “मैं नाहीं” अर्थात अहंकार का लोप, “हरि देखा” यानी अन्तरात्मा में सत्य का दर्शन।सूफी सन्तों की दृष्टिसूफी दर्शन में भी यही बात मिलती है— जब तक इंसान “फना” (अपने अहं और इच्छाओं का लोप) नहीं होता, तब तक “हकीकत” यानी खुदा का साक्षात्कार नहीं होता। सूफियों का मानना है कि साधक को पहले “शरीअत” (नीति), फिर “तरीकत” (मार्ग), फिर “मआरिफ़त” (अनुभव) और अंत में “हकीकत” (ईश्वर-साक्षात्कार) की चार अवस्थाएँ पार करनी पड़ती हैं, जिसमें अंतिम अवस्था में वही ज्ञान होता है जो ईश्वर ने हृदय में प्रत्यक्ष रूप से स्थापित किया है।गुरु-दर्शन का रहस्य‘अखण्ड ज्योति’ में वर्णित है कि “गुरु का साक्षात्कार तभी सम्भव है जब व्यक्ति अपने अंतःकरण को शुद्ध करता है। विकसित अंतर्दृष्टि वाले ही गुरु की आंतरिक ध्वनि को ग्रहण कर पाते हैं, साधारण व्यक्ति बाहरी मोह में उलझा रह जाता है” यही कारण है कि गुरुदेव कहते हैं — “अंधा हो” यानी बाह्यदृष्टि खो, “बहरा हो” यानी सांसारिक ध्वनि भूल, और “फकीर हो” यानी भीतर से खाली होकर ईश्वर से भर जा।इस प्रकार, यह वाक्य आत्म-दर्शन की पूर्ण स्थिति को इंगित करता है— जहाँ इंद्रियाँ मौन हो जाती हैं, मन निष्कलुष हो जाता है, और हृदय में गुरु या परमात्मा स्वयं प्रकट होता है

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