गुरु: अज्ञान से ज्ञान की ओरगुरु शब्द संस्कृत के दो शब्दों से मिलकर बना है: ‘गु’ (अंधकार) और ‘रु’ (प्रकाश)। अर्थात, गुरु वह है जो अज्ञान के अंधकार को दूर कर ज्ञान का प्रकाश प्रदान करता है। भारतीय संस्कृति में गुरु को ‘ब्रह्मा, विष्णु, महेश’ के समान माना गया है:

**गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरु साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥ **
इस मंत्र में गुरु को साक्षात् परम ब्रह्म कहा गया है, जो शिष्य को ईश्वर की ओर ले जाता है।गुरु-शिष्य परंपरा: आत्मा से परमात्मा तक
भारतीय दर्शन में गुरु-शिष्य परंपरा का विशेष महत्व है। उपनिषदों में ‘उपनिषद’ शब्द का अर्थ है ‘गुरु के समीप बैठकर ज्ञान प्राप्त करना’। यह परंपरा केवल शाब्दिक ज्ञान तक सीमित नहीं है, बल्कि आत्मा के गूढ़ रहस्यों को समझने और अनुभव करने का माध्यम है। गुरु शिष्य को न केवल ज्ञान प्रदान करता है, बल्कि उसे आत्म-साक्षात्कार की ओर भी ले जाता है। गुरु के बिना आत्म-साक्षात्कार संभव नहीं

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है: **”तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥” ** (गीता 4.34) अर्थात, “उस सत्य को जानने के लिए तुम ज्ञानियों के पास जाओ, उन्हें श्रद्धा से प्रणाम करो, उनकी सेवा करो और विनम्रता से प्रश्न करो; वे तत्त्वदर्शी तुम्हें ज्ञान प्रदान करेंगे।” यह स्पष्ट करता है कि आत्म-साक्षात्कार के लिए गुरु का मार्गदर्शन अनिवार्य है। गुरु: ईश्वर तक पहुँच का माध्यमगुरु को ईश्वर का प्रतिनिधि माना गया है। एक सच्चा गुरु शिष्य को ईश्वर की ओर ले जाता है, उसे आत्मा और परमात्मा के एकत्व का अनुभव कराता है। गुरु के बिना शिष्य स्वयं ईश्वर की पहचान नहीं कर सकता, क्योंकि गुरु ही वह दीपक है जो अज्ञान के अंधकार में प्रकाश फैलाता है। गुरु ही जीवन का सार्थकता प्रदान करता हैमेरा विचार कि “जीवन तभी सार्थक होता है जब शिष्य ईश्वर को पहचान ले, और यह कार्य गुरु ही करा सकता है” भारतीय आध्यात्मिक परंपरा के मूल में स्थित है। गुरु ही वह सेतु है जो शिष्य को आत्मा से परमात्मा की ओर ले जाता है, और उसके जीवन को सार्थक बनाता है।

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