गुरु शिष्य का जब आध्यात्मिक रिस्ता परिपकव हो जाता है और गुरु को शिष्य पर पूर्ण विस्व तब गुरु अपनी ऊर्जा से शिष्य के शरीर के रग रग में ऊर्जा भर उनको अर्जित कर अनाहद बोध करवा देताहै. इस तरह कुछवर्षो तक ध्यान समाधि ओर नाद ब्रह्म का अनुभव और अभ्यास के बाद शिष्य अपने को शुण्य में महसूस करता है और नाद आवाज समाप्त हो शुण्य में शरीर स्थित हो जाता है और जब सफर शुण्य से महाशून्य की ओर बढ़ता है तो गुरु की कृपा से उसे स्वयं सिद्ध देह का आध्यात्मिक अर्थ समझ मे आकर जव्म सिद्ध पुरुष बन जाता है और केवल्य उतपन्न हो जाता है यहां वह शाश्वत, निर्विकार, तथा मुक्त आध्यात्मिक शरीर हो जाता है जो साधना द्वारा प्राप्त होता है। इस देह में आत्मा या स्वयं के साथ पूर्ण एकाकारता होती है, जहां शरीर और आत्मा के बीच द्वैत समाप्त हो जाता है। इसे सिद्धि प्राप्त अवस्था माना जाता है, जिसमें जीवात्मा और परमात्मा का तात्विक समन्वय होता है।आध्यात्मिक दृष्टिकोण से, स्वयं सिद्ध देह उस अवस्था को दर्शाता है जिसमें साधक अपने सच्चे स्व यानी आत्मा के प्रति जागरूक होकर सांस-प्रणाली तथा सोऽहं साधना द्वारा उच्चतम चेतना स्तर तक पहुँचता है। इस अवस्था में प्राण-ऊर्जा का नियंत्रण होता है और मन-चेतना मौन या अमोन अवस्था में उच्चतर शक्तियों और सिद्धियों को उत्पन्न करने में सक्षम होती है।स्वयं सिद्ध देह की प्राप्ति के साथ साधक का शरीर और प्राण तत्व एकीकृत हो जाते हैं, जिससे साधक शारीरिक और मानसिक बंधनों से मुक्त हो कर आत्मबोध को प्राप्त करता है। यह सिद्धि विविध मंत्र साधनाओं, प्राणायाम, ध्यान और आध्यात्मिक समाधि के द्वारा संभव होती है। इस अवस्था में व्यक्ति में दिव्य शक्तियों का विकास होता है और वह संसार के कर्मों से मुक्त होकर शाश्वत आनंद तथा ज्ञान का अनुभव करता है।इस प्रकार, स्वम सिद्ध देह आध्यात्मिक संदर्भ में वह अविनाशी, दिव्य और अनुभूतिमय शरीर है जो पूर्ण मुक्ति, समत्व और परमात्मा के साथ आत्मसमर्पण की स्थिति में होता है। इसे प्राप्त करना योग, साधना, और निरंतर आध्यात्मिक अभ्यास का उद्देश्य होता है स्वयं सिद्ध देह के मुख्य लक्षण इस प्रकार हैं:मृत्यु का भय समाप्त होना: साधक को न तो मरने का डर होता है और न ही पुनर्जन्म की चिंता रहती है।इन्द्रिय और मन पर पूर्ण नियंत्रण: इन्द्रियाँ और मन साधक के वश में रहते हैं, किसी भी भौतिक या मानसिक बंधन से स्वतंत्र रहते हैं।निरंतर अंतःसुख एवं शान्ति की अनुभूति: साधक अपने अंतरंग में पूर्ण संतुष्टि और परम शान्ति का अनुभव करता है।कर्मों का विवेकपूर्वक त्याग: सभी कर्मों का मन से त्याग कर कर्म योगी सिद्धि को प्राप्त कर लेता है।समत्व और समर्पण की स्थिति: सुख-दुख, लाभ-हानि, मान-अपमान जैसी द्वैत भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं।सभी जीवों के प्रति करुणा और सेवा भाव: साधक सभी प्राणियों का हित चाहता है और उनके लिए कार्य करता है।मंत्रों और साधनाओं से सिद्धि प्राप्ति पर शरीर में दिव्य अनुभूतियाँ और शक्तियों का विकास होता है।आत्मज्ञान और परम ब्रह्म की अनुभूति होना, जहाँ साधक अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित रहता है।योग, ध्यान, प्राणायाम, मन्त्र जप और इन्द्रिय नियंत्रण द्वारा यह अवस्था प्राप्त की जाती है। इस अवस्था में साधक संसार के दुःखों से बाहर निकलकर अन्तःकरण में परमात्मा की अनुभूति करता है और आत्मसमाधि की स्थिति में स्थिर रहता है। यह सिद्धि ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग आदि सभी मार्गों से संभव है। इस प्रकार स्वयं सिद्ध देह आध्यात्मिक परिपक्वता, मोक्ष और परम सुख का प्रतीक है