जब कोई शिष्य पूर्ण गुरु के द्वारा दिक्सित हो कर ज्ञान प्राप्त कर शिक्षित हो ध्यान या समाधि की उच्च अवस्था मे अनाहद के प्राप्त करने के बाद समाधि में अपने को केंद्रित कर ध्यान मग्न हो जाता है ओर अपने अस्तित्व को भूल।जाता है ओरध्यान की उच्च अवस्था मे पहुच कर एकाग्र हो जाता है यहां से उसकी एक ओर यात्रा शुरू होती है वो है अनंत तब वो इस विराट ब्रह्मांड यानी अनंत की यात्रा पर चलता है जहाँ उसे दिव्य प्रकाश व ऊर्जा अलोकिख संसार जहाँ उच्च स्तर की उन आत्माओ से मुलाकात ओर मार्गदर्शन मिलता है जो गुरु के द्वारा नहि दिया होता है गुरु के गुरु व अन्य आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाली दिव्य आत्माये वहां आकर मार्ग दर्शन करती है और शिष्य को अपने गुरु से आगे ले जाने के लिए प्रेरित करती है इसीलिए गुरु जब शिष्य बनाते है तो कहते है उनके जैसा नही उनके गुरु के जैसा बने और आत्मा अनंत के सफर में ये ज्ञान प्राप्त करतीहै ब्रह्मांड से जब शिष्य साधना में अनंत की यात्रा,अपनी स्थुल शरीर की जगह सूक्ष्म शरीर या आत्मा के द्वारा” करती है जिसमे गुरु सहायक होता है तब आत्मा इस आकाश के ऊपर अनंत की यात्रा तीर की तरह से करती है और ऐसे वेग से ऊपर के लोको का सफर करती है जो।कल्पना से बाहर होता है मैं मानता हूं कि मेरायह वाक्य स्वयं में एक गूढ़ दर्शन को समेटे हुए है। इसे अलग-अलग स्तरों पर समझा जा सकता है। इसे हम चरणबद्ध रूप से समझ सकते हैं: पहला जिसमे . ब्रह्मांड से आरंभ होकरबाह्य ब्रह्मांड का विराट स्वरूप तारों से भरे आकाश, अनगिनत ग्रह-नक्षत्र व मनुष्य को अपनी सीमाओं का आभास कराता है।इस विराटता को देखकर जिज्ञासा जागती है क्या इसके अलावा और भी ब्रह्मांड है जो मैंने नही देखा उसे जानू ओर ये भी की मैं कौन हूँ? क्या मेरा इस ब्रह्मांड से किसी जन्म का कोई गहरा संबंध है जिसके कारण मुझे ये देखने को मिला या साधना से या गुरु की मेहर से मैं इस स्तर परपहुँच गया हूं पर जो मैंअनुभव कर रहा हुक्या यह सब केवल भौतिक है या पूर्ण आध्यात्मिक और इसके पार कुछ ओर है जिसे मैं नही जानता हूं या मेरी साधना अधूरी है या मुझे ओर ज्ञान हासिल करना है इसके लिये साधना की ओर जरूरत होती है जो मुझे भीतर की ओर गहन साधना में ले जाये जिससे मेरा अधूरा ज्ञान पूरा हो मुझे मंजिल।मिल जाये अभी मुझमे जो कमी है वह साधना के द्वारा पूर्ण हो जाये या गुरु की विशेष कृपा मुझे मिले इस जिज्ञासा से प्रेरित होकर शिष्य ओर साधना करता है जिसमे ध्यान, आत्मचिंतन, भक्ति, ज्ञान या कर्म के मार्ग पर चल कर उच्चतम शिखर को पाना होता है इसी को सोच वो विचार में मग्न रहता है कि क्या करूँ की मनजिल मुझे साधना या गुरु की।कृपा से जल्द से जल्द इसी जन्म में मिल जाये और मैं काबिल बन सकू मैं जानता हूं कि ये साधना एक अंतर्मुखी यात्रा है जिसमे भौतिक संसार की इच्छाएं व इंद्रियों को पीछे छोड़कर या उस पर नियंत्रण कर मन को स्थिर करना होता है, जब शिष्य का मन माया (भ्रम) की परतों को हट जाता है, तब वह साधना के दौरान उस अवस्था में स्वत् ही साक्षी भाव में प्रवेश कर जाता है।यहां आत्मा के द्वारा यह जान लेता है कि।वह चेतन तत्व जो न शरीर है, न मन, न बुद्धि —बल्कि जो सबका साक्षी है, सदा अचल और पूर्ण है वह है परमात्मा रूप में गुरु जिसने इस स्तर पर मुझे पहुचाया है यहां मेरीआत्मा ही साधक है, इस अवस्था मे पहुच शिष्य या प्राणी को अनंत की प्राप्ति — अद्वैत की अनुभूति होती है जब ये साधना परिपक्व हो जाती है, तो आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं रहता।इस अवस्था मे ब्रह्मांड, साधक, और साध्य — सब एक ही ब्रह्म में लीन हो जाते हैं।मेरी सोच के अनुसार ओर पिताजी के बताए ज्ञान के अनुसार यही है “अनंत की यात्रा” — जो वास्तव में गति नहीं, बल्कि स्वरूप की पहचान है।।अहं ब्रह्मास्मि” — मैं ही ब्रह्म हूँ।”ओर ये ही समस्त ब्रह्म ही ब्रह्म है। मैं इसमे लय हु नमन

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