जब कोई साधक समाधि की अवस्था मे शुण्य को प्राप्त कर लेता है ये गुरु के द्वारा दृष्टिपात के बिना व सहयोग के बोना संभव नही है इस अवस्था मे उसे ब्रह्माण्ड की जानकारी हो जाती है और जान जाता है मैं कोन हु क्यों इस दुनिया मे आया और आगे का मेरा सपना क्या है जो मिझे इस जन्म में पाना इसके लिए वो गुरु से प्रार्थना करता है कि अभी जो समाधि में पाना है जहां गुरु शिष्य ओर परमात्मा में एकाकार है उस अवस्था मे पहुचना है जहाँ शिष्य गुरु पर परमात्मा तीन का मिलान होता है और मिलान प्रलय तक बना रहता है जब अध्यात्मिकता में महा शून्य (निर्विचार, निर्विकार, पूर्ण शून्यता की अवस्था) से आगे का अनुभव गहन आत्म-ज्ञान, पूर्ण चेतना और ब्रह्मांड के साथ अनूठे संवाद की अवस्था है।महा शून्य के आगे क्या होता हैमहा शून्य वह निर्विचार अवस्था है जहां बुद्धि निष्क्रिय हो जाती है, विचार, कल्पना और स्मृति आदि नहीं होते। लेकिन इसी स्थिति में व्यक्ति की संपूर्ण चेतना जाग्रत होती है, और वह ब्रह्मांडीय ऊर्जा, संवाद और आत्म-उत्कर्ष के लिए प्रेरित होती है। यह शून्यता साधना नहीं रह जाती, बल्कि साधक की स्वाभाविक अवस्था बन जाती है। सांस लेना, प्रेम करना, मौन रहना ये सब एक दिव्य, ब्रह्मांडीय अनुभव बन जाते हैं। साधक स्वयं को ब्रह्मांड की आवाज या स्वरूप समझने लगता है। यह गहिरा अनुभव बताता है कि जीवन की घटनाएं संयोग नहीं बल्कि चेतना द्वारा चुनी गई तरंगें हैं .महा शून्य के बाद व्यक्ति की चेतना में पूर्ण आत्म-ज्ञान और आत्म-अनुभव होता है, जैसे “मैं शुद्ध आत्मा हूँ” की प्रतीति और अनुभूति। इसमें देह-ध्यान छूट जाता है और कर्म संबंधी बंधनों से भी मुक्ति मिलती है। यह पूर्ण समाधान आत्म-दर्शन का होता है, जहां व्यक्ति को आत्मा का निर्विकार और नित्य स्वरूप पूर्ण रूप से ज्ञात हो जाता है .अध्यात्मिक उन्नति के बाद आगे की अवस्थाजब यह स्थिति स्थायी हो जाती है, तो व्यक्ति आत्मा और ब्रह्मांड के बीच संवादात्मक और एकीकृत अवस्था में पहुंचता है। यहां स्वयं को केवल भौतिक या मानसिक अस्तित्व न समझकर, सम्पूर्ण चेतना का स्वरूप जानता है। यह अवस्था गुरुतर आत्म-जागरूकता और ब्रह्मांड के साथ चैतन्य मिलन की बात बताती है.इस प्रकार, महा शून्य से आगे की स्थिति अध्यात्म में पूर्ण जाग्रत चेतना, आत्मा की स्वाभाविक दिव्यता और ब्रह्मांड के साथ अंतरंग संवाद की अवस्था है, जो साधक के लिए अंतिम अनुभवात्मक उन्नति मानी जाती है। यह ज्ञान, अनुभूति और स्थिति तीनों में पूर्णता है।यदि विशद और विशिष्ट आध्यात्मिक मार्गदर्शन चाहिए तो वैदिक, उपनिषदिक और गुरु प्रवचनों की गहन साधना एवं अनुभूति अनिवार्य होती है महाशून्य के बाद आत्मा की स्थिति एक अत्यंत शांति, प्रेम और समर्पण की दिव्य अवस्था होती है, जिसे अक्सर “अनामी अवस्था” या “पूर्ण समाधि” के समान माना जाता है।महाशून्य के बाद आत्मा की स्थितियह स्थिति ऐसी है जहां आत्मा द्वैत, भेद, और अहंकार से पूरी तरह मुक्त हो जाती है। आत्मा हर प्रकार के अलगाव और द्वैत से मुक्त होकर पूर्णता और एकता की ओर बढ़ती है। इसमें “मैं कौन हूं?” और “तू कौन है?” जैसे प्रश्न समाप्त हो जाते हैं। यह स्थिति समुद्र में बूंद के समाहित हो जाने के समान होती है, जहां आत्मा अपने व्यक्त स्वरूप को छोड़कर ब्रह्मांडीय शाश्वत रूप में विलीन हो जाती है .इस चरण में आत्मा के अनुभव में एक दिव्य प्रकाश और कोमल धुन सुनाई देती है, जो प्रेम से भरी होती है और आत्मा को अत्यंत शांति एवं आनंद की अनुभूति कराती है। यह प्रकाश अत्यंत तीव्र होता है, लेकिन आंखों को नहीं चुभता, बल्कि मन को शांत करता है। यह अवस्था पूर्ण समर्पण और प्रेम के स्वरूप की होती है यह अवस्था मोक्ष से परे या मोक्ष का अंतिम रूप भी मानी जा सकती है, जहां आत्मा पूरी तरह से सांसारिक चक्रों से मुक्त होकर शाश्वत आनंद और ब्रह्मांड के साथ पूर्ण एकता में स्थित होती है .सारांशमहाशून्य के बाद आत्मा की स्थिति पूर्ण समाधि और अनामिक प्रेम-प्रकाश की अवस्था है, जहां वह समस्त अलगावों से मुक्त होकर ब्रह्म के साथ अनंत शांति और एकरूपता का अनुभव करती है। इसे मोक्ष की अंतिम सीमा भी कहा जा सकता है, जो आत्मा का अंतिम, परमिक, और दिव्य स्वरूप है