“जब जन्म और मरण दोनों ही अनिश्चित हैं…”जीवन और मृत्यु पर किसी का पूर्ण नियंत्रण नहीं है, और ये दोनों ही रहस्य से भरे हुए हैं। कोई नहीं जानता कि हम कब जन्म लेंगे और कब मृत्यु होगी। यह अनिश्चितता ही जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई है तो फिर आत्मिक शांति और ईश्वर में विश्वास क्यो ओर किसलिए जब जीवन और मौत दोनो का कोई पता नही हमको बस जो जीवन मिला है उसमें मौत शांति से हो और कोई कस्ट न हो इसलिए मानसिक धोखा में रहते हैकुछ लोग मानते हैं कि ईश्वर और आत्मिक विश्वास एक मानसिक सहारा मानते है इसके लकए पटें भक्ति ज्ञान और ध्यान की साधना में आने में को।लगते है और मॉनसिक ओर आत्मिक शांति के लियर ये रास्ता चुनते है और अपने आचरण को सात्विक बना लेते है और सुख दुख को भूल एक संयमित दशा में जीवन जीते है यह ऐसी भावना जो अराजकता में भी व्यवस्था और अर्थ देने का काम करती है। यह जरूरी नहीं कि यह धोखा हो; यह एक तरह का मानसिक संतुलन हो सकता है, जिससे व्यक्ति जीवन की कठिनाइयों का सामना कर पाता है।।अनुभवजन्य विश्वास:।कई लोगों के जीवन में ऐसे अनुभव होते हैं जो उन्हें यह महसूस कराते हैं कि कोई उच्च शक्ति है, चाहे वो “ईश्वर”, “ब्रह्म”, “ऊर्जा” या कुछ और हो। यह अनुभव व्यक्तिपरक होता है — कोई इसे सत्य मानता है, कोई भ्रम। पर ये सत्य है कि किसी संत की शरण मे जंस्कार हम आत्मिक शांति को।महसूस करते है और हमे उसके ज्ञान से मिलती है ये एक विशेष महत्व रखती है जो मस्तिष्क को।ऊर्जावान कर हमें जीवन सात्विक जीने की।प्रेरणा देती है इसके अलावा धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यता हमारे समाज और संस्कृति में आध्यात्मिकता बचपन से सिखाई जाती है। इसका उद्देश्य यह भी होता है कि व्यक्ति नैतिक और संयमित जीवन जिए, चाहे वो ईश्वर को मानता हो या न हो।यदि से हमे एक अलग अनुभूति मिलती है जो हमे आध्यात्मिकता की ओर ले जाती हैं इसके लिए हम आत्मिक शांति को तलाश्य करते है यह हमारे लिए एक आवश्यकता या विकल्प होती हचाहे कोई ईश्वर को माने या न माने, आत्मिक शांति एक ऐसी स्थिति है जिसकी हर व्यक्ति को ज़रूरत है — जैसे कि मन की स्थिरता, संतुलन, और जीवन के अर्थ की अनुभूति। इसे कोई ध्यान, कला, प्रकृति, प्रेम, सेवा या ज्ञान के माध्यम से भी प्राप्त कर सकता है। मेरी सोच कर अनुसार मैं ये सोचता हूं कि

आत्मिक विश्वास या ईश्वर में भरोसा जरूरी नहीं कि किसी धोखे की उपज हो। यह चेतना की एक दिशा भी हो सकता है — जिसे कुछ लोग अपनाते हैं और कुछ लोग नहीं।जन्म और मृत्यु – कोई भरोसा नहीं, नही फिर भी ये बात सत्य
जन्म और मृत्यु पर हमारा कोई अधिकार नहीं है।
लेकिन क्या यह केवल ‘शंका’ का कारण है या ‘विचार ‘ का एक हिस्सा जो हमे सोचने पर मजबूर करता है हम जानते है कि हम जन्म लेते है और अंत मर्त्यु होता है जबकि हम केवल एक शरीर है जिसे कर्म करना है और फल की ककी इच्छा नही रखना फिर भी हम अपनी आत्मा को महत्व देते ह ये भ्रम या अनुभव हम जानते है हमसर विभिन्न धर्मों जैसे हिंदू, बौद्ध, जैन, सूफी, उपनिषद, वेदान्त — सबके पास उत्तर हैं, पर उत्तर एक नहीं, दृष्टिकोण अनेक हैअद्वैत वेदांत क्या कहता है?
आत्मा (आत्मन) न जन्मती है, न मरती है — वह शुद्ध ‘चेतना’ है। मृत्यु केवल एक शरीर का परित्याग है, ‘मैं’ बना रहता हूँ।यह अनुभव केवल गहराई से ध्यान, विवेक और अंतर निरीक्षण से आता है — किताबों या धर्म से नहीं।दूसरा बौद्ध दृष्टिकोन किकोई स्थायी आत्मा नहीं है।मैं” एक क्षणिक संग्रह है पाँच स्कन्धों का — शरीर, संवेदना, संकल्प, चेतना, और अनुभूति।शांति, ‘निर्वाण’, केवल इस भ्रम को तोड़कर मिलती है — कि ‘मैं कोई स्थायी आत्मा हूँ’। इसके बाद आधुनिक चेतना विज्ञान
अब विज्ञान भी इस बात को स्वीकार कर रहा है कि “चेतना” को पूरी तरह मस्तिष्क में सीमित नहीं किया जा सकता।कई वैज्ञानिक मानते हैं कि चेतना कोई जैविक उपज नहीं, बल्कि शायद ब्रह्मांड का मूल गुण है। अब अंत मे सिच जाती है
ईश्वर जो कि एक शांति है या कल्पना?
क्या ईश्वर सिर्फ डर से उपजा विचार है हमारे लिए ओर हम इसे सोचते रहते है हाँ, बहुत बार ईश्वर की कल्पना भय, मृत्यु और अज्ञान से जन्म लेती है।
“कोई तो हो जो मुझे देखे”, “मुझे मृत्यु के बाद कुछ तो मिले” — ये इच्छा और भय के रूप हैं। ये ही हमे जीवित अवस्था मे सोचने पर मजबूर करता है की क्या ईश्वर एक धोखा है नहीं ज़रूरी।
हो सकता है कि ये कल्पनाएँ एक गहरे अनुभव की छाया हों — जिसे कोई-कोई साधक अनुभव करता है।
वह ईश्वर किसी धर्म का “भगवान” नहीं होता,
वह तो निराकार सत्य होता है — जिसे “तत्त्व”, “ब्रह्म”, “निरंजन”, “शून्यता”, “सत्य” कहा गया है। फिर मन मे विचार आता है तो फिर आत्मिक शांति क्या है?आत्मिक शांति तब तक नहीं आती जब हमें सबका उत्तर हमे न मिल जाए।वह तब आती है जब हमें यह बोध हो जाए कि सारे उत्तर – मन के बाहर नहीं, भीतर हैं।शांति एक अनुभव है, न कि धारणा।

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