तत्वदर्शी संत: आत्म-ज्ञान से मोक्ष तक का दिव्य पथप्रदर्शक

तत्वदर्शी संत” एक ऐसा शब्द है जिसका अध्यात्म में बहुत गहरा और विशिष्ट अर्थ है। यह केवल एक साधारण संत या धार्मिक व्यक्ति नहीं होता, बल्कि वह होता है जिसने “तत्व” को जान लिया हो।”तत्व” का अर्थ:अध्यात्म में “तत्व” का अर्थ है मूल सत्य, परम ज्ञान, या ब्रह्मांड और आत्मा के वास्तविक स्वरूप का गहरा बोध। यह ज्ञान केवल पुस्तकों से प्राप्त नहीं होता, बल्कि प्रत्यक्ष अनुभव और आत्म-साक्षात्कार के माध्यम से प्राप्त होता है।तत्वदर्शी संत कौन होते हैं?तत्वदर्शी संत वह होते हैं जो: ब्रह्मांडीय ज्ञान के ज्ञाता होते है जो वेदों, उपनिषदों, गीता और अन्य सभी धर्मग्रंथों के गूढ़ रहस्यों और सांकेतिक शब्दों को पूर्णतः समझते और उनकी व्याख्या कर सकते हैं। वे केवल ऊपरी ज्ञान नहीं रखते, बल्कि उनके अंदर अद्यात्मिक गहरे अर्थों को जानते हैं।ओर ये ज्ञान उनके गुरु के माध्यम से समाधि की अवस्था मे प्राप्त होता है जब शिष्य पूर्ण काबिल गुरु की नजर में बन जाता है तब सभी शक्तियां गुरु शिष्य के हृदय मे रोपित कर देते है जिससे शिष्य में आंतरिक गुढ़ ज्ञान उतपन्न हो जाता है उसी से शिष्य में परम सत्य का अनुभव होने लगता है ओर स्वयं को परम सत्य, परमात्मा या ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। वे केवल दूसरों द्वारा कहे गए ज्ञान को दोहराते नहीं, बल्कि उनका अपना प्रत्यक्ष अनुभव होता है।ये पुरुष उच्च कोटि केमार्गदर्शक: होते है और धर्म निरपेक्ष होते है मॉनवता इनका धर्म होता है ओर ये जीव को संसार के मायाजाल और कर्म-बंधन से मुक्त होने का सच्चा मार्ग दिखाते हैं। वे मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक साधना और मंत्रों का सही ज्ञान प्रदान करते हैं। निश्पक्ष भक्ति वे स्वयं भी अपने धर्म के अनुसार भक्ति साधना करते हैं और अपने अनुयायियों को भी वही विधि बताते हैं जो।इनको इनके गुरु से ली होती है । इनकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं होता। विषमता रहित: वे सभी प्राणियों को समान दृष्टि से देखते हैं, उनमें ऊँच-नीच, जाति, धर्म आदि का कोई भेद नहीं करते।ये अद्यतमिक दृस्टि से शांत और विनम्र होते है इनमे किसी भी तरह का दिखावा नही होता है और ये अहंकार रहित, सरल, विनम्र और शांत स्वभाव के होते हैं। वे दिखावा नहीं करते और उनका जीवन संयमित होता है।ये अपने स्तर और जो ज्ञान इन्होंने पाया होता है या अनुभव किया होता है उसे शिष्यो में साझा करते है और किसी भी शिष्य में भेद भसव नही करते और काबलियत के अनुसार उनको योग्य भी बना ते हर यदि कोई शिष्य के मन मे कोई संशय होता है तो उसका निवारण भी अपनी योग्यता के अनुसार करते ।हैवेद कि प्राचीन ऋषियों ने गहन ध्यान और तपस्या के माध्यम से इस दिव्य ज्ञान को ‘सुना’ (श्रुति) और फिर उसे मानवता तक पहुंचाया। यह ज्ञान स्वयं ब्रह्माजी द्वारा प्रकट किया गया शाश्वत ज्ञान माना जाता है। ओर इसी से ब्रह्मांडीय ज्ञान गुरु में उतपन्न होता है जिसके द्वारा हमारे वेद ब्रह्मांड के निर्माण, उसकी संरचना और प्रकृति के गूढ़ रहस्यों का वर्णन करते हैं। इनमें सृष्टि के मूल कारण, आत्मा, परमात्मा और माया के संबंध में गहन दार्शनिक सिद्धांत मिलते है: वेद बाहरी दुनिया के ज्ञान के साथ-साथ मनुष्य के आंतरिक जीवन, आत्मा की शक्तियों और आत्म-साक्षात्कार के मार्ग पर भी प्रकाश डालते हैं। ये मनुष्य को स्वयं को जानने और परम सत्य से जुड़ने में सहायता करते हैं।हम जानते है किवेदों का ज्ञान हजारों वर्षों तक मौखिक परंपरा के माध्यम से गुरु-शिष्य परंपरा में पीढ़ी दर पीढ़ी संचित होता रहा। इसमें मंत्रों के सही उच्चारण और लय पर विशेष ध्यान दिया जाता है और अध्यात्म में ध्यान व मंत्र और उनकी कंपन का अलग ही महत्व है जो कि वेदों में मंत्रों का केवल शब्द नहीं, बल्कि ध्वनि की शक्ति माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि मंत्रों के सही उच्चारण और जाप से विशेष कंपन ऊर्जा उत्पन्न होती है, जो मन और शरीर पर सकारात्मक प्रभाव डालती है और आध्यात्मिक चेतना को जागृत करती है। वैसे गुरु दीक्षा के समय अपनी ऊर्जा शिष्य के हृदय में रोपित कर उसे उर्धगति दे देते है जिससे ऊर्जा का शरीर मे संचालन होने लगता है और शिष्य ध्यानकी अवस्था में इसे अपने अंदर इसके चलन को।महसूस करता हैध्यान और योग वेदों और उपनिषदों में ध्यान और योग की विभिन्न पद्धतियों का उल्लेख मिलता है, जो आंतरिक शांति, मानसिक स्पष्टता और आत्म-साक्षात्कार के लिए महत्वपूर्ण हैंजिसमें पूर्ण मोक्ष की भक्ति विधि का ज्ञान होता है। यह ज्ञान केवल तत्वदर्शी संत के पास ही होता है, जो वेदों के गूढ़ रहस्यों को समझकर उनका सही अर्थ समझा सकते हैं।आध्यात्मिक यात्रा में संत स्वम् मार्गदर्शक की भूमिका निभाते हैं, जो व्यक्ति को आत्म-ज्ञान और मोक्ष की ओर अग्रसर करते हैं। ओर उसके महत्व और उनकी पहचान का उल्लेख मिलता है।श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 15 के श्लोक 1 में संसार को एक उल्टे वृक्ष के रूप में बताया गया है जिसकी जड़ें ऊपर और शाखाएं नीचे हैं। गीता अध्याय 15 श्लोक 1 और 4 में तत्वदर्शी संत की पहचान बताई गई है कि वह इस संसार रूपी वृक्ष के मूल (जड़) को जानता है और उसके बाद उस परम पद परमेश्वर की खोज करने का मार्ग बताता है, जहाँ जाने के बाद साधक लौटकर संसार में नहीं आते, अर्थात् पूर्ण मुक्त हो जाते हैं।

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