पहला स्वर्ग (वायुमंडलीय स्वर्ग):
यह सबसे निचला स्वर्ग है जो पृथ्वी के आस-पास के आकाश या वायुमंडल को दर्शाता है।
यह वह स्थान है जहां बादल, हवा, पक्षी उड़ते हैं और जहां मौसम के बदलाव होते हैं।
इसे हम सामान्य आकाश या धरती के ऊपर का आसमान कह सकते हैं।
दूसरा स्वर्ग (दिव्य स्वर्ग/बाह्य अंतरिक्ष):
यह स्वर्ग पहली तुलना में ऊंचा और व्यापक है।
इसमें तारे, ग्रह, चंद्रमा और अन्य खगोलीय पिंड शामिल होते हैं, और इसे ब्रह्मांड या बाह्य अंतरिक्ष के रूप में देखा जाता है।
इसे ‘आसमान का आकाश’ भी कहा जाता है।
तीसरा स्वर्ग (परमेश्वर का निवास स्थान):
यह सबसे उच्च और दिव्य स्वर्ग है जहां परमेश्वर का निवास माना जाता है।
इसे परम लोक या स्वर्ग के उच्चतम स्तर के रूप में देखा जाता है, जहां पूर्ण शांति, प्रकाश, और आध्यात्मिक आनंद का वास होता है।
यह स्वर्ग आत्माओं की अंतिम आध्यात्मिक यात्रा और परमात्मा के निकटतम स्थान का संकेत देता है।
संक्षेप में, पहला स्वर्ग धरती के निकट का भौतिक आकाश है, दूसरा स्वर्ग बाह्य अंतरिक्ष का क्षेत्र है, और तीसरा स्वर्ग परमेश्वर का दिव्य निवास स्थान है। ये तीन स्तर आध्यात्मिक और भौतिक दृष्टिकोण से भिन्न हैं, और प्रत्येक स्वर्ग की अपनी विशिष्ट आध्यात्मिक महत्ता है
काशी के मणिकर्णिका घाट पर चिता शांत होने के बाद भस्म पर 94 लिखने की परम्परा इसी गूढ़ दार्शनिक विचार से जुड़ी है कि मानव जीवन के कुल 100 कर्मों में से 94 उसके अपने हाथ में रहते हैं और 6 ईश्वर या विधि के अधीन होते हैं। इसका अर्थ यह होता है कि मृतक के किए गए वे 94 कर्म आज भस्म हो गए, पर शेष 6 कर्म उसके साथ आगे भविष्य के जन्म में जाते हैं, क्योंकि वही अगले जीवन का निर्धारण करते हैं।
94 और 6 कर्म का दार्शनिक भाव
94 कर्म: ये वे सत्कर्म व नैतिक आचरण हैं जिन्हें मनुष्य अपने विवेक, इच्छाशक्ति और प्रयत्न से कर सकता है। जैसे सत्य बोलना, सेवा करना, दान देना, संयम, धर्मपालन आदि।
6 कर्म: ये पूर्णतः मनुष्य के बस में नहीं हैं—हानि, लाभ, जीवन, मरण, यश, अपयश। इनका परिणाम विधि या ब्रह्म की इच्छा से तय होता है।
इसलिए जब घाट पर 94 लिखा जाता है, तो संकेत होता है कि ”तुम्हारे 94 कर्म यहीं भस्म हो गए हैं, अब जो 6 साथ जा रहे हैं वे ही तुम्हारा अगला जीवन गढ़ेंगे।”
गीता का संदर्भ
भगवद्गीता में बताया गया है कि मृत्यु के बाद आत्मा मन और पंचज्ञानेंद्रियां साथ लेकर जाती है। इस रूप में भी मृत्यु के उपरांत 6 तत्त्व जीव के साथ रहते हैं।
100 शुभ कर्मों की गणना
सूची में दिए गए 1 से 94 तक के कर्म धर्म, नैतिकता, समाज-सेवा, दान और आध्यात्मिकता से जुड़े हैं। इन्हें अभ्यास में लाकर मनुष्य अपना जीवन श्रेष्ठ बना सकता है।
95 से 100 तक के कर्म (हानि, लाभ, जीवन, मरण, यश, अपयश) को ईश्वर की सत्ता में माना गया है।इन 100 शुभ कर्मों का विस्तृत विवरण दिया जा रहा है जो जीवन को धर्म और सत्कर्म की ओर ले जाते हैं एवं यह सूची आपके जीवन को सत्कर्म करने की प्रेरणा देगी।*
100 शुभ कर्मों की गणना
धर्म.और.नैतिकता.के.कर्म.il
1.सत्य बोलना
2.अहिंसा का पालन
3.चोरी न करना
4.लोभ से बचना
5.क्रोध पर नियंत्रण
6.क्षमा करना
7.दया भाव रखना
8.दूसरों की सहायता करना
9.दान देना (अन्न, वस्त्र, धन)
10.गुरु की सेवा
11.माता-पिता का सम्मान
12.अतिथि सत्कार
13.धर्मग्रंथों का अध्ययन
14.वेदों और शास्त्रों का पाठ
15.तीर्थ यात्रा करना
16.यज्ञ और हवन करना
17.मंदिर में पूजा-अर्चना
18.पवित्र नदियों में स्नान
19.संयम और ब्रह्मचर्य का पालन
20.नियमित ध्यान और योग
सामाजिक.और.पारिवारिक.कर्म.il
21.परिवार का पालन-पोषण
22.बच्चों को अच्छी शिक्षा देना
23.गरीबों को भोजन देना
24.रोगियों की सेवा
25.अनाथों की सहायता
26.वृद्धों का सम्मान
27.समाज में शांति स्थापना
28.झूठे वाद-विवाद से बचना
29.दूसरों की निंदा न करना
30.सत्य और न्याय का समर्थन
31.परोपकार करना
32.सामाजिक कार्यों में भाग लेना
33.पर्यावरण की रक्षा
34.वृक्षारोपण करना
35.जल संरक्षण
36.पशु-पक्षियों की रक्षा
37.सामाजिक एकता को बढ़ावा देना
38.दूसरों को प्रेरित करना
39.समाज में कमजोर वर्गों का उत्थान
40.धर्म के प्रचार में सहयोग
आध्यात्मिक.और.व्यक्तिगत.कर्म.il
41.नियमित जप करना
42.भगवान का स्मरण
43.प्राणायाम करना
44.आत्मचिंतन
45.मन की शुद्धि
46.इंद्रियों पर नियंत्रण
47.लालच से मुक्ति
48.मोह-माया से दूरी
49.सादा जीवन जीना
50.स्वाध्याय (आत्म-अध्ययन)
51.संतों का सान्निध्य
52.सत्संग में भाग लेना
53.भक्ति में लीन होना
54.कर्मफल भगवान को समर्पित करना
55.तृष्णा का त्याग
56.ईर्ष्या से बचना
57.शांति का प्रसार
58.आत्मविश्वास बनाए रखना
59.दूसरों के प्रति उदारता
60.सकारात्मक सोच रखना
सेवा.और.दान.के.कर्म.il
61.भूखों को भोजन देना
62.नग्न को वस्त्र देना
63.बेघर को आश्रय देना
64.शिक्षा के लिए दान
65.चिकित्सा के लिए सहायता
66.धार्मिक स्थानों का निर्माण
67.गौ सेवा
68.पशुओं को चारा देना
69.जलाशयों की सफाई
70.रास्तों का निर्माण
71.यात्री निवास बनवाना
72.स्कूलों को सहायता
73.पुस्तकालय स्थापना
74.धार्मिक उत्सवों में सहयोग
75.गरीबों के लिए निःशुल्क भोजन
76.वस्त्र दान
77.औषधि दान
78.विद्या दान
79.कन्या दान
80.भूमि दान
नैतिक.और.मानवीय.कर्म.il
81.विश्वासघात न करना
82.वचन का पालन
83.कर्तव्यनिष्ठा
84.समय की प्रतिबद्धता
85.धैर्य रखना
86.दूसरों की भावनाओं का सम्मान
87.सत्य के लिए संघर्ष
88.अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना
89.दुखियों के आँसू पोंछना
90.बच्चों को नैतिक शिक्षा
91.प्रकृति के प्रति कृतज्ञता
92.दूसरों को प्रोत्साहन
93.मन, वचन, कर्म से शुद्धता
94.जीवन में संतुलन बनाए रखना
विधि.के.अधीन.6.कर्म.il
95.हानि
96.लाभ
97.जीवन
98.मरण
99.यश
100.अपयश
94 कर्म मनुष्य के नियंत्रण में
उपरोक्त सूची में 1 से 94 तक के कर्म वे हैं, जो मनुष्य अपने विवेक, इच्छाशक्ति, और प्रयास से कर सकता है। ये कर्म धर्म, सत्य, और नैतिकता पर आधारित हैं, जो जीवन को सार्थक बनाते हैं।
6.कर्म.विधि.के.अधीन:.il
अंतिम 6 कर्म ( हानि, लाभ, जीवन, मरण, यश, अपयश ) मनुष्य के नियंत्रण से बाहर हैं। इन्हें भाग्य, प्रकृति, या ईश्वर की इच्छा के अधीन माना जाता है।