प्रेम का पासा: कबीर के समर्पण की कहानी

“कबीर पासा पकड़या प्रेम का, सारी किया शरीर”

यहाँ “पासा” शब्द का प्रयोग जुए के लिए किया गया है, पर यह सांसारिक जुए की तरह नहीं है — यह प्रेम का जुआ है, यानी अपरिमित, निःस्वार्थ और ईश्वर से एकनिष्ठ प्रेम।

“सारी किया शरीर” – इसका अर्थ है कि कबीर ने इस प्रेम में अपने शरीर, मन, अहंकार, और सांसारिक मोह को दांव पर लगा दिया है। यानी वो कहते हैं कि इस प्रेम में कुछ भी बचाकर नहीं रखा। सब कुछ समर्पित कर दिया।

यह बताता है कि सच्चे भक्ति-पथ पर चलने के लिए केवल मन की श्रद्धा काफी नहीं — समर्पण पूर्ण होना चाहिए, तन-मन-धन सब ईश्वर को अर्पण करना पड़ता है।


“सतगुरु दाव बताइया, खेले दास कबीर”

यहाँ कबीर अपने सतगुरु (आध्यात्मिक मार्गदर्शक) की महत्ता बताते हैं। कबीर कहते हैं कि यह प्रेम का खेल उन्हें उनके सतगुरु ने बताया।
कबीर के अनुसार, सतगुरु ही वह होते हैं जो आत्मा को सच्चे मार्ग पर लगाते हैं — माया से हटाकर परमात्मा की ओर ले जाते हैं।

“खेले दास कबीर” – इसका अर्थ है कि जब उन्हें यह रहस्य सतगुरु ने समझाया, तो कबीर इस प्रेम के खेल में उतर गए। और अब वह दास भाव से, पूर्ण समर्पण के साथ इस प्रेम में लीन हो गए हैं।


आध्यात्मिक दृष्टिकोण से सार:

प्रेम: भक्ति में ‘प्रेम’ का अर्थ केवल भावना नहीं, बल्कि परमात्मा के लिए पूर्ण समर्पण है।

त्याग: अपने शरीर और मन से जुड़ी हर चीज़ को छोड़कर, केवल ईश्वर के प्रति समर्पण।

सतगुरु: जीवन में सच्चा मार्ग दिखाने वाला, जो ‘मैं’ और ‘मेरा’ से हटाकर हमें ‘वह’ की ओर ले जाता है।

भक्ति एक खेल है, पर यह साधारण नहीं, यह ऐसा खेल है जिसमें हारकर ही जीत मिलती है — अहंकार हारे, प्रेम जीते।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *