भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को अवयव (इंद्रियों और शरीर के अंगों) को समझने के लिए आत्मा और शरीर के भेद का उपदेश देते हैं। वे स्पष्ट करते हैं कि शरीर नश्वर है, जबकि आत्मा अमर। शरीर और आत्मा का भेदकृष्ण कहते हैं कि अवयव (इंद्रियां) जैसे आंख, कान आदि शरीर के हिस्से हैं, जो जन्म-मृत्यु के चक्र में बंधे रहते हैं। आत्मा इनसे परे है, न कटती है, न जलती है। गीता के द्वितीय अध्याय में वे उदाहरण देते हैं कि जैसे व्यक्ति वस्त्र बदलता है, वैसे ही आत्मा शरीर त्यागती है। इंद्रियों पर नियंत्रणअवयवों को वश में करने का ज्ञान गीता के तृतीय और पंचम अध्यायों में है, जहां निष्काम कर्मयोग सिखाया जाता है। इंद्रियां विषयों की ओर भटकती हैं, अतः बुद्धि द्वारा उन्हें संयमित करें। इससे मोह त्याग हो जाता है। व्यावहारिक उपदेशकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि अवयवों का मोह छोड़कर कर्तव्य पथ पर चलें। जैसे रथ और कवच शरीर से अलग हैं, वैसे आत्मा अवयवों से स्वतंत्र है। यह ज्ञान युद्धभूमि में ही दिया गया।भगवद्गीता में अवयव (शरीर के अंगों और इंद्रियों) तथा आत्मा के भेद का उपदेश मुख्य रूप से द्वितीय अध्याय (सांख्य योग) में वर्णित है। प्रमुख श्लोकअध्याय 2 के श्लोक 12 से 30 तक श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता समझाते हैं। विशेषकर श्लोक 22: “वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥” अर्थात् जैसे पुराने वस्त्र त्यागकर नए धारण करते हैं, वैसे जीवात्मा पुराने शरीर को छोड़ नया ग्रहण करता है। अवयव शरीर के नाशवान भाग हैं, आत्मा इनसे परे है। आत्मा के गुणश्लोक 23-25 में कहा गया कि आत्मा अछेद्या, अदाह्या, अक्लेद्या, अशोष्या है; न जन्म लेती, न मरती। श्लोक 20: “न जायते म्रियते वा कदाचिन्…” यह भेद समझने से मोह नष्ट होता है।भगवद्गीता अध्याय 2 के श्लोक 20, 22 और 23 में आत्मा की अमरता और शरीर के नश्वर स्वरूप का विस्तृत वर्णन है। श्लोक 20 का अर्थश्लोक: “न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥”यह आत्मा कभी जन्म नहीं लेती, न मरती है। न तो पहले उत्पन्न होकर फिर होगी, न पुनः उत्पन्न होगी। यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और अनादि है। शरीर के नष्ट होने पर भी यह नष्ट नहीं होती। यह छह विकारों (जन्म, अस्तित्व, परिवर्तन आदि) से परे है। श्लोक 22 का अर्थश्लोक: “वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥”जैसे मनुष्य पुराने फटे वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है, वैसे ही आत्मा पुराने व्यर्थ शरीरों को छोड़कर नए भौतिक शरीर ग्रहण करती है। यह देहधारी आत्मा के शरीर-परिवर्तन का उदाहरण है। श्लोक 23 का अर्थश्लोक: “नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥”इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल भिगो नहीं सकता, वायु सुखा नहीं सकती। यह अविनाशी है, क्योंकि यह भौतिक तत्वों से परे है।भगवद्गीता अध्याय 2 के श्लोक 23 में आत्मा और प्राण का सीधा संबंध नहीं बताया गया है। यह श्लोक मुख्यतः आत्मा की अविनाशिता पर केंद्रित है, जहां स्पष्ट किया गया कि आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, अग्नि नहीं जला सकती, जल नहीं भिगो सकता और वायु (मारुतः) नहीं सुखा सकती। श्लोक का मुख्य अर्थश्लोक: “नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥”यहाँ “मारुतः” वायु को संदर्भित करता है, जो प्राण (जीवन शक्ति) का एक रूप है, किंतु श्लोक का उद्देश्य आत्मा को पंच महाभूतों (भौतिक तत्वों) से परे सिद्ध करना है। प्राण शरीर की गतिविधियों का संचालक है, पर आत्मा इन सबकी आधारशक्ति है, न कि प्राण का हिस्सा। प्राण नश्वर है, आत्मा अमर। संबंध की व्याख्यागीता में प्राण को अवयवों (इंद्रियों) से जुड़ा माना गया है, जबकि श्लोक 23-24 आत्मा को इनसे अलग बताते हैं। कुछ टीकाकार प्राण को सूक्ष्म शरीर का भाग मानते हैं, जो आत्मा को धारण करता है, किंतु श्लोक स्वयं प्राण का उल्लेख आत्मा के संदर्भ में नहीं करता। संबंध अप्रत्यक्ष है: प्राण शरीर चलाता है, आत्मा चेतना प्रदान करती है।

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