मनुष्य जन्म।लेने के बाद कर्म के अनुसार जन्म।लेता है और जन्म।के समय पूर्व कर्मो के अनुसार घर चुन जन्म।ले कर बड़ा होता है और अगर परिवार के संस्कार अच्छे मील तो ईमानदार नेक चलन के कारण वह प्रेम भक्ति ज्ञान और ध्यान की तरह अपनी रुचि बढ़ता है और ध्यान को पाने और जानने के लिए समाज के किसी योग्य व्यक्ति को गुरु मां उसका अनुसरण करता है जहाँ गुरु उसे आध्यात्मिक तरिके से अवगत करके आध्यात्मिक राह पर आगे बढ़ता है यह विभिन्न उपनिषद, गीता, योगशास्त्र और वेदान्त परंपरा से लिया गया सार है —भौतिक लोक (पृथ्वीलोक / मृत्यु लोक)यहाँ आत्मा शरीर धारण कर कर्म करती हैअच्छे-बुरे कर्मों का फल मिलता है।जब पुण्य अधिक होता है तो आत्मा स्वर्ग या देव लोक तक जाती है।स्वर्ग / देव लोकयह स्थान सुख, ऐश्वर्य और दिव्य भोग का है।परंतु यह स्थायी नहीं है, क्योंकि यह भी कर्मों से ही मिलता है।पुण्य क्षीण होने पर आत्मा फिर से जन्म लेती हैमहर्लोक, जनलोक, तपलोये और ऊँचे सूक्ष्म लोक हैं।यहाँ अत्यंत तपस्वी, योगी और ऋषि आत्माएँ रहती हैं।यह देवताओं से भी ऊँचे लोक हैं।परंतु ये भी अभी परम सत्य नहीं हैं।ब्रह्मलोक (सत्यलोक)यहाँ आत्मा सृष्टिकर्ता ब्रह्मा तक पहुँचती है।यहाँ अत्यंत दीर्घ जीवन और उच्च ज्ञान मिलता है।लेकिन यहाँ भी पूर्ण मुक्ति नहीं है।उपनिषद कहते हैं “ब्रह्मलोकात् अपि मोक्ष की आवश्यकता है।”मुक्ति का मार्ग (देव लोक से ऊपर उठना)देव लोक और सभी लोकों से ऊपर पहुँचने के लिए आत्मा को साधना करनी होती है ज्ञान (आत्मबोध) – “मैं शरीर नहीं, आत्मा हूँ” यह स्थिर हो जाना लय भक्ति परमात्मा में सम्पूर्ण समर्पण।योग और ध्यान – समाधि द्वारा अहंकार और मन का विलय. वैराग्य – सभी लोकों, भोगों और पदों के प्रति अनासक्ति परब्रह्म / परमात्मा में लयजब आत्मा पूरी तरह शुद्ध हो जाती है तो उसका पुनर्जन्म चक्र समाप्त हो जाता है।वह देव लोक, पितृ लोक, महर्लोक, ब्रह्मलोक — सबके पार पहुँचकर परमात्मा में विलीन हो जाती हैइसे मोक्ष, कैवल्य, निर्वाण, परमधाम कहा जाता है।यहाँ आत्मा और परमात्मा में भेद नहीं रहता।देव लोक से ऊपर पहुँचने की क्रिया = कर्मशुद्धि + भक्ति + ज्ञान + ध्यान + वैराग्य + गुरु कृपा।और अंतिम लक्ष्य = परमात्मा में पूर्ण मिलनभौतिक लोक (पृथ्वीलोक / मृत्यु लोक)यहाँ आत्मा शरीर धारण कर कर्म करती है।अच्छे-बुरे कर्मों का फल मिलता है।जब पुण्य अधिक होता है तो आत्मा स्वर्ग या देव लोक तक जाती है।स्वर्ग / देव लोकयह स्थान सुख, ऐश्वर्य और दिव्य भोग का है।परंतु यह स्थायी नहीं है, क्योंकि यह भी कर्मों से ही मिलता है।पुण्य क्षीण होने पर आत्मा फिर से जन्म लेती है । महर्लोक, जनलोक, तपलोकये और ऊँचे सूक्ष्म लोक हैं।यहाँ अत्यंत तपस्वी, योगी और ऋषि आत्माएँ रहती हैंयह देवताओं से भी ऊँचे लोक हैं।परंतु ये भी अभी परम सत्य नहीं हैं।ब्रह्मलोक (सत्यलोक)
यहाँ आत्मा सृष्टिकर्ता ब्रह्मा तक पहुँचती है।
यहाँ अत्यंत दीर्घ जीवन और उच्च ज्ञान मिलता है।
लेकिन यहाँ भी पूर्ण मुक्ति नहीं है।
उपनिषद कहते हैं – “ब्रह्मलोकात् अपि मोक्ष की आवश्यकता है।
मुक्ति का मार्ग (देव लोक से ऊपर उठना)
देव लोक और सभी लोकों से ऊपर पहुँचने के लिए आत्मा को साधना करनी होती है —. ज्ञान (आत्मबोध) – “मैं शरीर नहीं, आत्मा हूँ” यह स्थिर हो जाना।
. भक्ति – परमात्मा में सम्पूर्ण समर्पण।
योग और ध्यान – समाधि द्वारा अहंकार और मन का विलय।वैराग्य – सभी लोकों, भोगों और पदों के प्रति अनासक्ति।
परब्रह्म / परमात्मा में लयजब आत्मा पूरी तरह शुद्ध हो जाती है तो उसका पुनर्जन्म चक्र समाप्त हो जाता हैवह देव लोक, पितृ लोक, महर्लोक, ब्रह्मलोक — सबके पार पहुँचकर परमात्मा में विलीन हो जाती है।इसे मोक्ष, कैवल्य, निर्वाण, परमधाम कहा जाता है।यहाँ आत्मा और परमात्मा में भेद नहीं रहता।
देव लोक से ऊपर पVहुँचने की क्रिया = कर्मशुद्धि + भक्ति + ज्ञान + ध्यान + वैराग्य + गुरु कृपा।
और अंतिम लक्ष्य = परमात्मा में पूर्ण मिलन। यहां पर आत्मा का लोको।का गमन इस तरह से होता है1. पृथ्वीलोक → 2. स्वर्ग/देव लोक → 3. महर्लोक/जनलोक/तपलोक → 4. ब्रह्मलोक → 5. परमधाम (मोक्ष)। ये अंतिम चरण है यहां आत्मा लय हो जाती है और ईश्वर के साथ प्रलय काल तक रहती है उसे न दुख अनुभव न सुख बस फ्रीज अवस्था मे रहती है जब पृथ्वी प्रलय के बाद फिर जीव की उत्पनन होते है तब धरा पर ईश्वर की आज्ञा से कर्मो के अनुसार जन्म।लेती है जो विभिन्न लोको।में भृमण कर नलन जीवन बिता रही होती है