जब साधक और साध्य एक हो जाएँ

“मैं से मैं की पहुँच और तू बीच में फिर क्या हो” एक रहस्यात्मक सूक्ति या सूफियाना चिंतन जैसी लगती है, जिसमें गहरी आत्मबोध या ईश्वर अनुभव की स्थिति का इशारा मिलता है।भावार्थ और व्याख्या”मैं से मैं की पहुँच”: इसका अर्थ है जब साधक, साधना या आत्मचिंतन द्वारा, अपने स्वरूप यानी ‘मैं’ (आत्मा/स्वरूप/असली प्रकृति) से उसी ‘मैं’ (आत्मलक्ष्य या परमात्मा) तक पहुँच जाता है। यहाँ ‘मैं’ दो बार आया है—पहला व्यक्तिगत अहं (इगो) या जीव का ‘मैं’, दूसरा वह परमात्मा या शुद्ध आत्मा है जो सभी में सर्वत्र है।”तू बीच में फिर क्या हो”: अर्थात्, जब साधक सीधे अपने असल स्वरूप (परमात्मा, ब्रह्म) से मिलन की स्थिति में आ जाता है, तब ‘तू’ (यानी अलग कोई दूसरा, द्वैत, बाधा, भ्रम या माया) बीच में कैसे रह सकता है? तब कोई द्वैत या भिन्नता नहीं बचती, क्योंकि साधक और साध्य एक हो जाते हैं।कविता के संदर्भ मेंयह भाव कबीर, बुल्ले शाह, या अन्य संतों की वाणी में बार-बार आता है—”जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहीं,” इत्यादि। इस तरह की सूक्ति साधना की चरम स्थिति को दर्शाती है, जहाँ साधक का ‘मैं’ पूरी तरह विलीन हो जाता है और वही परम-सत्त बन जाता है, तब कोई और ‘तू’ (अलगत्व, अहं, बाह्य बाधाएं) नहीं रह जातीं।हिंदी में सरल अनुवाद”जब आत्मा (मैं) अपने परमस्वरूप (मैं ही) तक पहुंच जाए, तब कोई भिन्नता या विकल्प (तू) मध्य में नहीं रहता—फिर दोनों अलग नहीं रहते, केवल एकत्व ही शेष बचता है।”�यह पंक्ति अद्वैत या निर्गुण प्रेम-भक्ति का दार्शनिक भाव व्यक्त करती है: जहाँ साधक और साध्य, आत्मा और परमात्मा, seeker और sought, सब एक में विलीन हो जाते हैं।

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