यह दोहा संत कबीर का है, जिसमें वे तीर्थयात्रा और बाहरी कर्मकांडों की सार्थकता पर प्रश्न उठाते हैं। इसका अर्थ है कि लोग तीर्थ-तीर्थ घूमते हैं, पवित्र जल में स्नान करते हैं, लेकिन वास्तविक भक्ति और आत्मिक शुद्धि हृदय में राम (ईश्वर) के प्रति सच्ची श्रद्धा और प्रेम से ही प्राप्त होती है। केवल बाहरी कर्मकांडों से न तो आत्मा का उद्धार होता है, न ही मृत्यु का भय (काल) टलता है।कबीर कहते हैं कि सच्ची भक्ति भीतर की शुद्धता और ईश्वर के प्रति समर्पण में है, न कि बाहरी तीर्थों या स्नान में।

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