योग साधना में जब हम किसी योगी की साधरण अवस्था या साधना करते हुवे उसकी नाक के पास अपना हाथ स्पर्श करते है तो हमे लगता है की वो स्वास ले ही नही रहा है और गहराई से इसे अनुभव करते है तो लगता है स्वास बहुत ही धीमी गति से चल रहा है ये इस बात को संदर्भित करता हैं, जो मुख्य रू प से ध्यान, और समाधि की उच्च अवस्थाओं से जुड़े हैं। हम अगर इस बात को खोजे तो इनका वर्णन राजयोग, में मिलता है। मैंने स्वम् ने अनुभव किया है कि स्वास समाधि की उच्च अवस्था मे जहा कोई बोध नही रहता उस अवस्था मे समाधि में स्वास की गति अति धीमी रहती है है जो योगी की श्वास की अत्यंत सूक्ष्म और नियंत्रित अवस्था को दर्शाती है। यह तब होता है जब योगी ध्यान साधना में इतना निपुण हो जाता है कि उसकी श्वास अत्यंत धीमी, सूक्ष्म और लगभग स्थिर हो जाती है ये राज योग में होता है यह ध्यान साधना की सर्वोच्च अवस्था है जिसे हम निर्बीज समाधि या शून्यता में स्थिरता को कहते है यह अवस्था गुरु के द्वारा दी गई ऊर्जा से अनाहद उतपन्न हो फिर सारे शरीर मे अनुभव हो एकाग्रता की चर्म अवस्था है यानी शून्यता महसूस होने की व अपने अस्तित्व को खोने के बाद आती है जब मैं का अस्तित्व खत्म हो तो यानी गुरु रूपी ईश्वर का अस्तित्व शिष्य में बन जाता है या उतपन्न हो जाता है इस अवस्था मे जहाँ श्वास स्वतः इतनी सूक्ष्म हो जाती है कि वह बाहरी स्तर पर लगभग रुक-सी जाती है।सामान्यतः यह ध्यान या समाधि की गहरी अवस्था में अनुभव होता है, जब मन और प्राण एकाग्र होकर स्थिर हो जाते हैं। तो स्वास की गति इतनी कम हो जाती है कि वह नाक से केवल दो अंगुल की दूरी तक ही प्रभावी रहती है। यह प्राण की सूक्ष्मता और नियंत्रण का प्रतीक है।इसे प्राप्त करने के लिये गुरु के समक्ष ध्यान करना सादगी से जीवन जीना विकार रहित होना और स्वम् के अस्तित्व को मिटा कर साधना में लय रहना ओरध्यान साधना नादानुसंधान स्तिथ होना जब योगी का चित्त जब पंच तत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) के स्थूल रूप से ऊपर उठकर सूक्ष्म आकाश तत्व में लीन होता है, तब यह अवस्था स्वाभाविक रूप से प्राप्त होती है।वायु तत्व को छोड़ आकाश तत्व से स्वास लेनायह एक आध्यात्मिक अवस्था है, जहाँ योगी की चेतना वायु तत्व (प्राण का स्थूल रूप) से ऊपर उठकर आकाश तत्व (सूक्ष्म और सर्वव्यापी चेतना) में प्रवेश करती है।आकाश तत्व से स्वास का अर्थ:यहाँ “श्वास” का अर्थ केवल भौतिक श्वास नहीं, बल्कि प्राण-शक्ति का सूक्ष्म प्रवाह है, जो चेतना के साथ एकीकृत हो जाता है।आकाश तत्व सर्वव्यापी, असीम और स्थूल तत्वों से परे होता है। जब योगी इस अवस्था में पहुँचता है, उसकी चेतना स्थूल शरीर और प्राण से ऊपर उठकर आकाश तत्व में लीन हो जाती है।इस अवस्था में योगी का श्वास इतना सूक्ष्म हो जाता है कि वह बाहरी वायु पर निर्भर नहीं रहता। यह समाधि की वह अवस्था है जहावस्तु तत्व का विलीन होना:”वस्तु तत्व” से तात्पर्य पंच तत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु) के स्थूल रूप से है। जब योगी ध्यान और प्राणायाम के माध्यम से इन स्थूल तत्वों को पार कर जाता है, तब केवल आकाश तत्व (चेतना का शुद्ध रूप) रह जाता है।इस अवस्था में भूख, प्यास, और अन्य शारीरिक आवश्यकताएँ समाप्त हो जाती हैं, क्योंकि योगी की चेतना शरीर से परे आत्मा या ब्रह्म में लीन हो जाती है।”तू ही तू रहता है” का अर्थ:यह योग की परम अवस्था, निर्विकल्प समाधि या ब्रह्मानंद को दर्शाता है, जहाँ योगी का अहंकार (स्वयं का बोध) और विश्व का भेद मिट जाता है। केवल शुद्ध चेतना या ईश्वर (तू) ही रह जाता है।इस अवस्था में योगी स्वयं को विश्व के साथ एकरूप अनुभव करता है, और कोई द्वैत (दो का भाव) नहीं रहता , विशेष रूप से आज्ञा चक्र और सहस्रार चक्र, जो आकाश तत्व से संबंधित हैं। इनसे रहता है पर गुरु मार्गदर्श इस तरह की उच्च अवस्था को प्राप्त करने के लिए एक सिद्ध गुरु का मार्गदर्शन आवश्यक है, क्योंकि यह प्रक्रिया जटिल है। ओर गुरु के द्वारा ही उसकी रहम पर मिलती है इसके लिए शिष्य का आज्ञाकारी ओर नेक चलल मोह माया से दूर विकार रही सय्यमी होना व आसन सिद्ध होने के साथ साथ यम-नियम:योग के आठ अंगों (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि) का पालन करने वाला होनाजरूरी है,उसकी ।सात्विक जीवनशैली, शुद्ध आहार, और मन की शांति इस अवस्था को प्राप्त करने में सहायक हैं। यह अवस्था सभी के लिए संभव है वैसे यह अवस्था योगियों के लिए ही है जो वर्षों की साधना, संयम, और समर्पण के साथ योग मार्ग पर चलते हैंओर ।भूख-प्यास से मुक्ति और आकाश तत्व में लीन होने की अवस्था केवल सिद्ध योगियों के लिए संभव है, जो शारीरिक और मानसिक सीमाओं को पार कर चुके हैं और “आकाश तत्व से स्वास” योग की उच्च अवस्थाएँ हैं, जो प्राणायाम, ध्यान, के माध्यम से प्राप्त होती हैं। इस अवस्था में योगी स्थूल तत्वों (वस्तु तत्व) से मुक्त होकर शुद्ध चेतना में लीन हो जाता है, जहाँ केवल “तू ही तू” (ब्रह्म या आत्मा) रहता है। यह योग साधना का परम लक्ष्य है,

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