शिव की जटा से गंगा : चेतना के अवतरण का योगिक रहस्य

“शिव की जटा से गंगा निकलना” कोई सिर्फ भौतिक घटना नहीं, बल्कि गहरे योगिक और तंत्रिकीय (नाड़ी) रहस्यों का प्रतीक है।गंगा – शुद्ध चेतना (Divine Consciousnessगंगा को वेद और पुराणों में ज्ञान की धारा कहा गया है।इसका अवतरण ब्रह्मलोक (सहस्रार) से माना जाता है।गंगा का “शिव की जटा में समाना” और फिर “पृथ्वी पर उतरना” यह दर्शाता है कि उच्च चेतना को नियंत्रित करके साधक के भीतर स्थिर किया जाता है।शिव की जटा – नाड़ी-जाल / चेतना का केन्द्रशिव की जटा = साधक का सिर (आज्ञा और सहस्रार क्षेत्र) और वहां फैला हुआ नाड़ी-जाल।योगशास्त्र में सहस्रार के नीचे आज्ञा चक्र (भृकुटि के बीच) है, जहां इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना तीनों मिलती हैं।जब ऊर्जा (कुंडलिनी) ऊपर उठती है, तो वह सहस्रार में (सहस्त्रदल कमल) में जाकर ब्रह्म-चेतना से मिलती है।इड़ा–पिंगला–सुषुम्ना का संबंधनाड़ी स्थान/कार्यक्षेत्र अर्थइड़ा (चंद्रनाड़ी) बाईं ओर, मन, भावनाएँ, शीतलता आज्ञा चक्र तकपिंगला (सूर्यनाड़ी) दाईं ओर, प्राण, सक्रियता, उष्णता आज्ञा चक्र तकसुषुम्ना मध्य मार्ग, मूलाधार से सहस्रार तक मोक्ष मार्गइड़ा व पिंगला आज्ञा चक्र पर आकर रुक जाती हैं, पर सुषुम्ना वहीं से आगे सहस्रार तक जाती है।यही सहस्रार में ऊर्जा के खुलने का कारण है — जिसे शास्त्रों में “गंगा का अवतरण” कहा गया।गंगा का जटा में ठहरना – ऊर्जा का नियंत्रणशिव = योगी = परम ध्यानस्थ।जब गंगा (शुद्ध ऊर्जा) सीधे पृथ्वी पर उतरी तो उसके वेग को कोई रोक नहीं सकता था।प्रतीकात्मक रूप से:सहस्रार की ऊर्जा (ब्रह्मज्ञान) बिना तैयारी के साधक के भीतर उतर जाए तो मन–शरीर संभाल नहीं सकता।इसलिए गुरु (शिव) पहले उस ऊर्जा को अपनी जटा (नाड़ी-जाल, सहस्रार) में स्थिर करते हैं, फिर नियंत्रित प्रवाह में शिष्य (भगीरथ) तक पहुंचाते हैं।आध्यात्मिक अर्थ – साधना की प्रक्रियाभगीरथ = साधक की तीव्र तपस्या।गंगा = दिव्य शक्ति/कुंडलिनी।शिव = गुरु/चेतना का सर्वोच्च केंद्र।जटा = सहस्रार में स्थित नाड़ी जाल।पृथ्वी पर उतरना = हृदय व नीचे के चक्रों तक ऊर्जा का स्थिर प्रवाह।जटा से गंगा निकलना = सहस्रार में स्थिर हुई ब्रह्मचेतना का साधक के भीतर धीरे-धीरे अवतरण।इड़ा-पिंगला = ऊर्जा के द्वैत मार्ग।सुषुम्ना = ब्रह्ममार्ग।शिव की जटा = वह उच्च केंद्र जहां से यह शक्ति नीचे आती है।इड़ा–पिंगला आज्ञा चक्र तक आती हैं, वहीं से सुषुम्ना सहस्रार तक जाती है। गंगा का शिव की जटा से निकलना दर्शाता है कि ब्रह्मचेतना (गंगा) सहस्रार (जटा) में स्थिर होकर साधक के लिए उपयुक्त प्रवाह (सुषुम्ना) में उतरती है। यह कथा वास्तव में ऊर्जा नियंत्रण और दिव्य चेतना के अवतरण का प्रतीक है।

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