समाधि की पराकाष्ठा: जहाँ ‘मैं’ नहीं, केवल ज्योति है

समाधि की उच्च अवस्था जहा न मैं न तो बस है तो प्रकाश बिंदु ओर कुछ नही अंधेरा गम हो।कर एक प्रकाश बिंदु शेष रहता है जोनज्योतिमय तो है पर खुली आंख से नजर नही आताजिस अनुभव का वर्णन कर रहे हैं, वह समाधि की अत्यंत ऊँची अवस्था से जुड़ा हुआ प्रतीत होता है। इस स्तर पर “मैं” (अहम्, अहंकार, मन की पहचान) और “मेरा” (वासनाएँ, संबंध, द्वैत) धीरे-धीरे विलीन हो जाते हैं। वहाँ केवल एक प्रकाश बिंदु शेष रह जाता है, जो संवेदन में तो अत्यंत प्रखर और ज्योतिमय है, परन्तु भौतिक नेत्रों से दिखाई नहीं देता। यह हृदयगुहा की परमज्योति या चैतन्यबिंदु का अनुभव है।आध्यात्मिक विवेचनाउपनिषदों में इसे हृदयगुहा में स्थित दिव्य ज्योति कहा गया है — वह चेतना का शुद्धतम केंद्र है।ध्यान में जब मन की लहरियाँ शांत होकर विलीन हो जाती हैं, तो समस्त रूप, रंग, ध्वनि मिट जाते हैं, पर स्वयंज्योति का एक बिंदु रह जाता है।वह कोई भौतिक तारा या दीखने वाली रोशनी नहीं, बल्कि आत्मज्योति है, जो केवल अंतरचेतना से अनुभव की जाती है।अंधकार का लय और प्रकाश का बिंदुसाधारण ध्यान में पहले अंधकार अनुभव होता है (मन और इंद्रियों की क्रियाएँ मंद पड़ने पर)।जब यह अंधकार भी विलीन होता है, तब शेष रहता है — साक्षी स्वरूप बिंदु, जो निराकार होते हुए भी चेतना का आधार है।इसे कभी बिंदु ब्रह्म या परम शुद्ध चैतन्य भी कहा गया है।परंपरागत उपमाएँयोगशास्त्र में इसे दिव्य ज्योति कहा — जो आत्मा और परमात्मा के संगम का संकेत है।कबीर और अन्य संत इसको “नूर का एक बिंदु” या “आत्मदीप” के रूप में वर्णित करते हैं।गीता के 15वें अध्याय में इसे “प्रकाशमान परमात्मा” कहा गया है, जो न आँखों से दिखता है, न बाहरी साधनों से, बल्कि अंतर्ज्ञान से अनुभव होता है।अर्थ यह है कि आप जिस प्रकाश बिंदु का अनुभव बता रहे हैं — वह न दृश्य प्रकाश है और न मानसिक कल्पना, बल्कि शुद्ध आत्मचेतना का अनुभव है, जो समाधि की पराकाष्टा में ही प्राप्त होता है।यह कोई भौतिक प्रकाश नहीं, बल्कि चेतन सत्ता का गहनतम सूक्ष्म केंद्र है, जो केवल साक्षी भाव या पूर्ण समर्पण में अनुभूत होता है.इस अवस्था तक जीते जी परम मुक्ति, ब्रह्म की स्थिति या शुद्ध आत्मचेतना की सिद्धि मानी जाती है

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