व्याख्या (अद्वैत वेदांत व सूफ़ी दृष्टिकोण से):
संत कबीर इस दोहे के माध्यम से समाज में फैली जाति व्यवस्था की आलोचना करते हैं। वे कहते हैं कि सच्चा मूल्य व्यक्ति के ज्ञान, अनुभव और आत्मिक चेतना में होता है, न कि उसके जन्म, जाति या बाह्य पहचान में।
अद्वैत वेदांत दृष्टि से:
अद्वैत वेदांत कहता है कि “आत्मा अजात है, अव्यय है, अजाति है।” आत्मा न ब्राह्मण है, न शूद्र, न पुरुष है न नारी — वह तो निर्गुण ब्रह्म का अंश है। ऐसे में साधु की पहचान उसके आत्म-ज्ञान से होती है, न कि उसके देहधारी समाजिक स्वरूप से।
सूफ़ी दृष्टि से:
सूफ़ी मत में भी रूह (आत्मा) को ही पहचान का आधार माना गया है। सूफ़ी संत कहते हैं — जब तक ‘मैं’ (अहं) है, तब तक ‘वह’ (ईश्वर) नहीं। और जब वह (ईश्वर) प्रकट हो, तब ‘मैं’ मिट जाता है। तब जात-पात, मजहब, भाषा — सब एक हो जाते हैं।
संदेश:
सच्चा संत वह है जो ईश्वर को जान चुका है, चाहे वह किसी भी जाति, धर्म या पंथ से आया हो। जैसे तेज़ धार वाली तलवार की कीमत होती है, वैसे ही ज्ञानवान साधु का महत्व है — न कि उसके वस्त्र, जाति या कुल का।