आत्म-संयम, आराधना और गुरु-कृपा: आत्म-जागरण की त्रिवेणी

।आत्म-संयम, आध्यात्मिक आराधना और गुरु-कृपा — ये तीनों मिलकर आत्म-जागरण और मोक्ष की दिशा का निर्माण करते हैं।आत्म-संयमआत्म-संयम का अर्थ है—इंद्रियों, मन और इच्छाओं पर प्रभुत्व। जब व्यक्ति बाहरी भोगों से विरक्त होकर भीतर के स्वरूप की ओर मुड़ता है, तब मन की अशुद्धियाँ क्षीण होती हैं। इस अवस्था में “चित्तशुद्धि” आरंभ होती है और आत्मा का प्रकाश भीतर जगमगाने लगता है।आध्यात्मिक आराधनाआराधना का लक्ष्य केवल कर्मकाण्ड नहीं, बल्कि ईश्वरीय समीपता है। निरंतर साधना, जप, ध्यान, स्वाध्याय और भक्ति से सूक्ष्म शरीर (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) का परिष्कार होता है। इससे भीतर की मलिनता दूर होती है और चेतना सत्, चित्, आनंदस्वरूप आत्मा की ओर बढ़ती है।गुरु की कृपागुरु ही वह माध्यम हैं जो ज्ञान का संस्कार आत्मा में रोपते हैं। केवल अभ्यास से नहीं, बल्कि गुरु के स्पर्श या दृष्टि से हृदय जाग्रत होता है — क्योंकि यह कृपा आत्मा को उसकी मूल प्रकृति का अनुभव कराती है।जैसे अंधेरे में दीपक दिखाने से ही वस्तु दृष्टिगोचर होती है, वैसे ही गुरु की कृपा से ही आत्मा अपनी ज्योति को पहचानती है।मोक्ष की परिणतिजब आत्म-संयम से इंद्रियनिग्रह, आराधना से चित्तशुद्धि और गुरु-कृपा से आत्मप्रकाश प्रकट होता है, तब सूक्ष्म शरीर के बंधन नष्ट हो जाते हैं। यही मुक्ति या मोक्ष है — न कि कहीं जाने की क्रिया, बल्कि बँधनों से मुक्त होकर स्वयं का दर्शन करना।आत्म-संयम व मोक्ष: (आत्मोपनिषद् से)श्लोकःगुरुशिष्यादिभेदेन ब्रह्मैव प्रतिभासते ।ब्रह्मैव केवलं शुद्धं विद्यते तत्त्वदर्शने ॥ ३॥…न च विद्या न चाविद्या न जगच्च न चापरम् ।सत्यत्वेन जगद्भानं संसारस्य प्रवर्तकम् ॥ ४॥असत्यत्वेन भानं तु संसारस्य निवर्तकम् ।…शिव एव स्वयं साक्षादयं ब्रह्मविदुत्तमः ।जीवन्नेव सदा मुक्तः कृतार्थो ब्रह्मवित्तमः ॥ २०॥हिन्दी भावार्थ:गुरु-शिष्य की उपाधि मात्र भेद है, वस्तुतः शुद्ध ब्रह्म ही प्रत्येक रूप में प्रकाशित होता है। ज्ञान और अज्ञान, जगत और परमार्थ भी शुद्ध सत्ता के विविध स्वरूप हैं। जब ब्रह्मविद् (ज्ञाननिष्ठ व्यक्ति) तत्त्व को प्रत्यक्ष जान लेता है, तभी मुक्त हो जाता है; वह जीते-जी ही सदा के लिए मोक्षप्राप्त होता है।गुरु-कृपा (भगवद्गीता ४.३४)श्लोकःतद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥हिन्दी भावार्थ:उस ज्ञान को गुरु के पास जाकर, विनयपूर्वक प्रश्न व सेवा करते हुए प्राप्त करो; वे ज्ञानिन और तत्त्वदर्शी तुम्हें ज्ञान प्रदान करेंगे।केवल गुरु-कृपा से जागृतिमार्गदर्शन (स्वामी मुकुन्दानन्द व जगद्गुरु कृपालुजी की वाणी):गुरु के बिना दिव्यज्ञान की प्राप्ति और भक्ति का आरंभ असंभव है। भगवान व गुरु, दोनों एक-दूसरे के बिना नहीं मिल सकते।“Guru Kripa ke bina ek kadam bhi bhakti mein sambhav nahin hai.”(गुरु की कृपा के बिना भक्ति में एक कदम भी आगे बढ़ना असंभव है)

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