संत शिष्य को केवल्य पद (मोक्ष या आत्म-साक्षात्कार) पर ले जाने के लिए निम्नलिखित कार्य करते हैं:

  1. ज्ञान प्रदान करना: संत शिष्य को वेद, उपनिषद, गीता और अन्य शास्त्रों का मर्म समझाते हैं, जिससे शिष्य को आत्म-तत्त्व का बोध होता है।
  2. मनोवृत्ति का शोधन: वे शिष्य के मन को शुद्ध करने के लिए वैराग्य (विषयों से विरक्ति) और विवेक (सत-असत का भेद) की शिक्षा देते हैं।
  3. साधना का मार्गदर्शन: शिष्य को ध्यान, जप, तप और स्वाध्याय का अभ्यास करने की विधि बताते हैं, जिससे चित्त की एकाग्रता और शुद्धि होती है।
  4. मोह और अज्ञान का नाश: संत अपनी कृपा और उपदेशों से शिष्य के अज्ञान को दूर करते हैं और मोह (माया) से मुक्ति दिलाते हैं।
  5. स्वानुभव से मार्गदर्शन: संत अपने स्वानुभव के आधार पर शिष्य को मार्गदर्शन देते हैं, जिससे शिष्य को सत्य का साक्षात्कार होता है।
  6. कर्मों का शोधन: संत शिष्य को निष्काम कर्म योग (फल की इच्छा के बिना कर्म) की शिक्षा देते हैं, जिससे उसके संस्कार और बंधन नष्ट होते हैं।
  7. संगति और प्रेरणा: संत की संगति में शिष्य का मन शुद्ध और सात्त्विक होता है, जिससे उसे केवल्य पद प्राप्त करने की प्रेरणा मिलती है।
  8. कृपा और शक्ति-संचार: संत अपनी कृपा और दिव्य शक्ति से शिष्य की साधना को पुष्ट करते हैं और उसे आत्म-साक्षात्कार की ओर अग्रसर करते हैं।

संत का मुख्य कार्य शिष्य को आत्मबोध कराकर उसे संसार के बंधनों से मुक्त करना और केवल्य पद तक पहुँचाना होता है।संत शिष्य को केवल्य पद (मोक्ष या आत्म-साक्षात्कार) पर ले जाने के लिए निम्नलिखित कार्य करते हैं:

1. ज्ञान प्रदान करना: संत शिष्य को वेद, उपनिषद, गीता और अन्य शास्त्रों का मर्म समझाते हैं, जिससे शिष्य को आत्म-तत्त्व का बोध होता है।


2. मनोवृत्ति का शोधन: वे शिष्य के मन को शुद्ध करने के लिए वैराग्य (विषयों से विरक्ति) और विवेक (सत-असत का भेद) की शिक्षा देते हैं।


3. साधना का मार्गदर्शन: शिष्य को ध्यान, जप, तप और स्वाध्याय का अभ्यास करने की विधि बताते हैं, जिससे चित्त की एकाग्रता और शुद्धि होती है।


4. मोह और अज्ञान का नाश: संत अपनी कृपा और उपदेशों से शिष्य के अज्ञान को दूर करते हैं और मोह (माया) से मुक्ति दिलाते हैं।


5. स्वानुभव से मार्गदर्शन: संत अपने स्वानुभव के आधार पर शिष्य को मार्गदर्शन देते हैं, जिससे शिष्य को सत्य का साक्षात्कार होता है।


6. कर्मों का शोधन: संत शिष्य को निष्काम कर्म योग (फल की इच्छा के बिना कर्म) की शिक्षा देते हैं, जिससे उसके संस्कार और बंधन नष्ट होते हैं।


7. संगति और प्रेरणा: संत की संगति में शिष्य का मन शुद्ध और सात्त्विक होता है, जिससे उसे केवल्य पद प्राप्त करने की प्रेरणा मिलती है।


8. कृपा और शक्ति-संचार: संत अपनी कृपा और दिव्य शक्ति से शिष्य की साधना को पुष्ट करते हैं और उसे आत्म-साक्षात्कार की ओर अग्रसर करते हैं।



संत का मुख्य कार्य शिष्य को आत्मबोध कराकर उसे संसार के बंधनों से मुक्त करना और केवल्य पद तक पहुँचाना होता है।

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