आकाश तत्त्व मय शरीर: आध्यात्मिक रहस्य और साधना

आकाश तत्त्व मय शरीर वह सूक्ष्मतम शरीर है, जो पंचतत्त्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) में से आकाश तत्त्व से निर्मित होता है। यह शरीर स्थूल और सूक्ष्म शरीर से भी परे होता है और चेतना की अत्यंत उच्च अवस्था में अनुभव किया जाता है।


  1. आकाश तत्त्व मय शरीर क्या है?

आकाश तत्त्व शुद्धतम तत्त्व माना जाता है, जो शून्यता, अनंतता और आत्मा के स्वरूप का प्रतीक है। जब साधक अपने स्थूल, प्राणमय, और मनोमय शरीरों को पार कर जाता है, तब वह आकाश तत्त्व मय शरीर में प्रवेश करता है। यह शरीर पूर्ण रूप से चेतना और दिव्य प्रकाश से बना होता है।

विशेषताएँ:

अहंकार और सीमाओं से मुक्त होता है।

सत्य, चैतन्य और आनंद (सच्चिदानंद) का अनुभव कराता है।

सभी तत्त्वों से सूक्ष्म, केवल शुद्ध चेतना से बना होता है।

आत्मा और परमात्मा के मिलन की अवस्था में प्रकट होता है।


  1. कैसे साधना में यह शरीर बनता है?

इस शरीर को प्राप्त करने के लिए साधक को गहरी ध्यान-साधना और तत्त्वों के पार जाने की प्रक्रिया अपनानी होती है।

साधना की मुख्य विधियाँ:

  1. पंचतत्त्व साधना:

सबसे पहले साधक को पृथ्वी, जल, अग्नि, और वायु तत्त्व पर विजय प्राप्त करनी होती है।

जब मन और प्राण पूर्णतः स्थिर हो जाते हैं, तब आकाश तत्त्व की अनुभूति होती है।

  1. अंतर ध्यान (Inner Meditation):

अपनी चेतना को स्थूल शरीर से हटाकर सूक्ष्म शरीर में प्रवेश कराना।

धीरे-धीरे सूक्ष्म शरीर से भी आगे बढ़कर आकाशीय चेतना में प्रवेश करना।

  1. ब्रह्मरंध्र ध्यान:

सहस्रार चक्र (Crown Chakra) पर ध्यान केंद्रित करना।

जब ध्यान पूरी तरह स्थिर हो जाता है, तो आकाश तत्त्व जागृत होता है और साधक का शरीर आकाश तत्त्व में विलीन होने लगता है।

  1. नादयोग और मौन साधना:

जब मन पूरी तरह मौन हो जाता है और नाद (आकाशीय ध्वनि) का अनुभव होता है, तब यह शरीर जागृत होने लगता है।


  1. किस समाधि में यह रूप प्रकट होता है?

आकाश तत्त्व मय शरीर केवल उच्च समाधि अवस्थाओं में ही अनुभूत किया जाता है।

मुख्य समाधियाँ:

  1. सविकल्प समाधि:

इसमें साधक को आकाश तत्त्व का आभास होने लगता है, लेकिन वह अभी अहंकार से पूरी तरह मुक्त नहीं हुआ होता।

ध्यान के दौरान शरीर हल्का महसूस होने लगता है, और कई बार उड़ने या शून्यता में विलीन होने का अनुभव होता है।

  1. निर्विकल्प समाधि:

यह अवस्था तब आती है जब साधक पूरी तरह से ‘मैं’ (अहंकार) को छोड़ देता है।

यहाँ पर आकाश तत्त्व मय शरीर पूर्ण रूप से जागृत हो जाता है और साधक स्वयं को अनंत आकाश की भाँति अनुभव करता है।

इस समाधि में केवल प्रकाश, नाद (ध्वनि), और अनंतता का अनुभव होता है।

  1. धारणा और ध्यान के बीच की अवस्था:

जब साधक अपने ध्यान को अत्यंत उच्च स्तर पर ले जाता है, तो शरीर का अनुभव धीरे-धीरे लुप्त होने लगता है।

इस अवस्था में केवल आकाशीय कंपन और दिव्य चेतना का अनुभव होता है।


निष्कर्ष:

आकाश तत्त्व मय शरीर उच्चतम आध्यात्मिक अवस्था में प्रकट होता है। यह तब बनता है जब साधक स्थूल और सूक्ष्म तत्त्वों से परे जाकर अपनी चेतना को शुद्ध चैतन्य रूप में रूपांतरित कर लेता है।

मुख्य बातें:

✅ पंचतत्त्वों से पार जाने पर यह शरीर बनता है।
✅ मौन, नादयोग, और ब्रह्मरंध्र ध्यान से इसकी साधना की जाती है।
✅ यह उच्च समाधि (निर्विकल्प समाधि) में अनुभव किया जाता है।
✅ इस अवस्था में साधक शुद्ध प्रकाश, नाद और अनंत आकाश के रूप में स्वयं को देखता है।

क्या आप इसे और गहराई से समझना चाहेंगे या किसी विशेष साधना की विधि जानना चाहेंगे?
[12/03, 17:21] pawan kumar gupta: अनाहत चक्र और सहस्रार चक्र की भूमिका

अनाहत चक्र (हृदय चक्र)

यह चक्र प्रेम, करुणा, और दिव्य ऊर्जा का केंद्र है।

यहाँ पर नाद (ध्वनि) की उत्पत्ति होती है, जिसे अनाहद नाद कहा जाता है।

यह आत्मा और परमात्मा के मिलन का द्वार खोलता है।

सहस्रार चक्र (मस्तिष्क का शीर्ष चक्र)

यह ब्रह्म से एकत्व और परम ज्ञान का केंद्र है।

यहाँ पर सभी चक्रों की ऊर्जा एकत्र होकर दिव्य चेतना में विलीन हो जाती है।

इसे सहस्रदल कमल कहा जाता है, जहाँ आत्मा का पूर्ण जागरण होता है।


  1. अनाहत और सहस्रार चक्र का मिलन कैसे होता है?

यह मिलन तब होता है जब साधक अपनी ऊर्जा (कुंडलिनी) को अनाहत चक्र से उठाकर सहस्रार चक्र तक ले जाता है।

मुख्य साधना प्रक्रियाएँ:

(1) कुंडलिनी जागरण:

जब कुंडलिनी शक्ति मूलाधार से उठती है, तो यह अनाहत चक्र को सक्रिय करती है।

अनाहत चक्र में पहुँचने पर साधक को दिव्य प्रेम, आनंद, और अनाहद नाद का अनुभव होता है।

यह शक्ति जब सहस्रार चक्र तक पहुँचती है, तब व्यक्ति आत्मसाक्षात्कार की अवस्था में आ जाता है।

(2) अनाहद नाद साधना:

अनाहत चक्र में दिव्य नाद सुना जाता है, जिसे “शाश्वत ध्वनि” कहते हैं।

जब साधक इस ध्वनि पर ध्यान केंद्रित करता है, तो यह उसे सहस्रार चक्र तक ले जाती है।

इस प्रक्रिया में मन पूरी तरह स्थिर हो जाता है और ध्यान की गहराई बढ़ती है।

(3) ध्यान और समाधि:

जब साधक “सोऽहम” या “अहं ब्रह्मास्मि” की अवस्था में स्थिर हो जाता है, तब अनाहत और सहस्रार चक्र का मिलन होता है।

इस अवस्था में “अहम् और परम” का भेद समाप्त हो जाता है।


  1. इस मिलन का अनुभव कैसा होता है?

आनंद और प्रेम: दिव्य प्रेम और आनंद की अनुभूति होती है, जो शब्दों से परे है।

प्रकाश और नाद: साधक को दिव्य प्रकाश और अनाहद नाद (शाश्वत ध्वनि) का अनुभव होता है।

स्वयं का लय: अहंकार पूरी तरह समाप्त हो जाता है, और साधक केवल “शुद्ध चैतन्य” के रूप में बचता है।

ब्रह्म से एकत्व: सहस्रार चक्र पर ऊर्जा का मिलन होने से, साधक ब्रह्म से एकत्व की स्थिति में प्रवेश करता है।


  1. कौन सी समाधि में यह मिलन होता है?

यह मिलन उच्च स्तर की समाधि में होता है, विशेष रूप से:

(1) सविकल्प समाधि:

यहाँ साधक को दिव्य अनुभव होते हैं, लेकिन मन अभी भी सूक्ष्म रूप में सक्रिय होता है।

अनाहत में प्रेम और सहस्रार में प्रकाश का अनुभव होता है।

(2) निर्विकल्प समाधि:

इसमें साधक पूरी तरह आत्मा में विलीन हो जाता है।

कोई द्वैत नहीं रहता—सिर्फ शुद्ध चैतन्य, नाद, और अनंत शून्यता का अनुभव होता है।


  1. निष्कर्ष

✅ अनाहत और सहस्रार चक्र का मिलन आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाता है।
✅ यह मिलन कुंडलिनी जागरण, अनाहद नाद साधना और ध्यान के माध्यम से संभव होता है।
✅ इस अवस्था में साधक दिव्य प्रेम, अनंत प्रकाश, और ब्रह्म से एकत्व का अनुभव करता है।
✅ यह उच्चतम समाधि (निर्विकल्प समाधि) में पूरी तरह प्रकट होता है।[12/03, 17:20] pawan kumar gupta: आकाश तत्त्व मय शरीर: आध्यात्मिक रहस्य और साधना

आकाश तत्त्व मय शरीर वह सूक्ष्मतम शरीर है, जो पंचतत्त्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) में से आकाश तत्त्व से निर्मित होता है। यह शरीर स्थूल और सूक्ष्म शरीर से भी परे होता है और चेतना की अत्यंत उच्च अवस्था में अनुभव किया जाता है।




1. आकाश तत्त्व मय शरीर क्या है?

आकाश तत्त्व शुद्धतम तत्त्व माना जाता है, जो शून्यता, अनंतता और आत्मा के स्वरूप का प्रतीक है। जब साधक अपने स्थूल, प्राणमय, और मनोमय शरीरों को पार कर जाता है, तब वह आकाश तत्त्व मय शरीर में प्रवेश करता है। यह शरीर पूर्ण रूप से चेतना और दिव्य प्रकाश से बना होता है।

विशेषताएँ:

अहंकार और सीमाओं से मुक्त होता है।

सत्य, चैतन्य और आनंद (सच्चिदानंद) का अनुभव कराता है।

सभी तत्त्वों से सूक्ष्म, केवल शुद्ध चेतना से बना होता है।

आत्मा और परमात्मा के मिलन की अवस्था में प्रकट होता है।





2. कैसे साधना में यह शरीर बनता है?

इस शरीर को प्राप्त करने के लिए साधक को गहरी ध्यान-साधना और तत्त्वों के पार जाने की प्रक्रिया अपनानी होती है।

साधना की मुख्य विधियाँ:

1. पंचतत्त्व साधना:

सबसे पहले साधक को पृथ्वी, जल, अग्नि, और वायु तत्त्व पर विजय प्राप्त करनी होती है।

जब मन और प्राण पूर्णतः स्थिर हो जाते हैं, तब आकाश तत्त्व की अनुभूति होती है।



2. अंतर ध्यान (Inner Meditation):

अपनी चेतना को स्थूल शरीर से हटाकर सूक्ष्म शरीर में प्रवेश कराना।

धीरे-धीरे सूक्ष्म शरीर से भी आगे बढ़कर आकाशीय चेतना में प्रवेश करना।



3. ब्रह्मरंध्र ध्यान:

सहस्रार चक्र (Crown Chakra) पर ध्यान केंद्रित करना।

जब ध्यान पूरी तरह स्थिर हो जाता है, तो आकाश तत्त्व जागृत होता है और साधक का शरीर आकाश तत्त्व में विलीन होने लगता है।



4. नादयोग और मौन साधना:

जब मन पूरी तरह मौन हो जाता है और नाद (आकाशीय ध्वनि) का अनुभव होता है, तब यह शरीर जागृत होने लगता है।







3. किस समाधि में यह रूप प्रकट होता है?

आकाश तत्त्व मय शरीर केवल उच्च समाधि अवस्थाओं में ही अनुभूत किया जाता है।

मुख्य समाधियाँ:

1. सविकल्प समाधि:

इसमें साधक को आकाश तत्त्व का आभास होने लगता है, लेकिन वह अभी अहंकार से पूरी तरह मुक्त नहीं हुआ होता।

ध्यान के दौरान शरीर हल्का महसूस होने लगता है, और कई बार उड़ने या शून्यता में विलीन होने का अनुभव होता है।



2. निर्विकल्प समाधि:

यह अवस्था तब आती है जब साधक पूरी तरह से ‘मैं’ (अहंकार) को छोड़ देता है।

यहाँ पर आकाश तत्त्व मय शरीर पूर्ण रूप से जागृत हो जाता है और साधक स्वयं को अनंत आकाश की भाँति अनुभव करता है।

इस समाधि में केवल प्रकाश, नाद (ध्वनि), और अनंतता का अनुभव होता है।



3. धारणा और ध्यान के बीच की अवस्था:

जब साधक अपने ध्यान को अत्यंत उच्च स्तर पर ले जाता है, तो शरीर का अनुभव धीरे-धीरे लुप्त होने लगता है।

इस अवस्था में केवल आकाशीय कंपन और दिव्य चेतना का अनुभव होता है।







निष्कर्ष:

आकाश तत्त्व मय शरीर उच्चतम आध्यात्मिक अवस्था में प्रकट होता है। यह तब बनता है जब साधक स्थूल और सूक्ष्म तत्त्वों से परे जाकर अपनी चेतना को शुद्ध चैतन्य रूप में रूपांतरित कर लेता है।

मुख्य बातें:

✅ पंचतत्त्वों से पार जाने पर यह शरीर बनता है।
✅ मौन, नादयोग, और ब्रह्मरंध्र ध्यान से इसकी साधना की जाती है।
✅ यह उच्च समाधि (निर्विकल्प समाधि) में अनुभव किया जाता है।
✅ इस अवस्था में साधक शुद्ध प्रकाश, नाद और अनंत आकाश के रूप में स्वयं को देखता है।

क्या आप इसे और गहराई से समझना चाहेंगे या किसी विशेष साधना की विधि जानना चाहेंगे?
[12/03, 17:21] pawan kumar gupta: अनाहत चक्र और सहस्रार चक्र की भूमिका

अनाहत चक्र (हृदय चक्र)

यह चक्र प्रेम, करुणा, और दिव्य ऊर्जा का केंद्र है।

यहाँ पर नाद (ध्वनि) की उत्पत्ति होती है, जिसे अनाहद नाद कहा जाता है।

यह आत्मा और परमात्मा के मिलन का द्वार खोलता है।


सहस्रार चक्र (मस्तिष्क का शीर्ष चक्र)

यह ब्रह्म से एकत्व और परम ज्ञान का केंद्र है।

यहाँ पर सभी चक्रों की ऊर्जा एकत्र होकर दिव्य चेतना में विलीन हो जाती है।

इसे सहस्रदल कमल कहा जाता है, जहाँ आत्मा का पूर्ण जागरण होता है।





2. अनाहत और सहस्रार चक्र का मिलन कैसे होता है?

यह मिलन तब होता है जब साधक अपनी ऊर्जा (कुंडलिनी) को अनाहत चक्र से उठाकर सहस्रार चक्र तक ले जाता है।

मुख्य साधना प्रक्रियाएँ:

(1) कुंडलिनी जागरण:

जब कुंडलिनी शक्ति मूलाधार से उठती है, तो यह अनाहत चक्र को सक्रिय करती है।

अनाहत चक्र में पहुँचने पर साधक को दिव्य प्रेम, आनंद, और अनाहद नाद का अनुभव होता है।

यह शक्ति जब सहस्रार चक्र तक पहुँचती है, तब व्यक्ति आत्मसाक्षात्कार की अवस्था में आ जाता है।


(2) अनाहद नाद साधना:

अनाहत चक्र में दिव्य नाद सुना जाता है, जिसे “शाश्वत ध्वनि” कहते हैं।

जब साधक इस ध्वनि पर ध्यान केंद्रित करता है, तो यह उसे सहस्रार चक्र तक ले जाती है।

इस प्रक्रिया में मन पूरी तरह स्थिर हो जाता है और ध्यान की गहराई बढ़ती है।


(3) ध्यान और समाधि:

जब साधक “सोऽहम” या “अहं ब्रह्मास्मि” की अवस्था में स्थिर हो जाता है, तब अनाहत और सहस्रार चक्र का मिलन होता है।

इस अवस्था में “अहम् और परम” का भेद समाप्त हो जाता है।





3. इस मिलन का अनुभव कैसा होता है?

आनंद और प्रेम: दिव्य प्रेम और आनंद की अनुभूति होती है, जो शब्दों से परे है।

प्रकाश और नाद: साधक को दिव्य प्रकाश और अनाहद नाद (शाश्वत ध्वनि) का अनुभव होता है।

स्वयं का लय: अहंकार पूरी तरह समाप्त हो जाता है, और साधक केवल “शुद्ध चैतन्य” के रूप में बचता है।

ब्रह्म से एकत्व: सहस्रार चक्र पर ऊर्जा का मिलन होने से, साधक ब्रह्म से एकत्व की स्थिति में प्रवेश करता है।





4. कौन सी समाधि में यह मिलन होता है?

यह मिलन उच्च स्तर की समाधि में होता है, विशेष रूप से:

(1) सविकल्प समाधि:

यहाँ साधक को दिव्य अनुभव होते हैं, लेकिन मन अभी भी सूक्ष्म रूप में सक्रिय होता है।

अनाहत में प्रेम और सहस्रार में प्रकाश का अनुभव होता है।


(2) निर्विकल्प समाधि:

इसमें साधक पूरी तरह आत्मा में विलीन हो जाता है।

कोई द्वैत नहीं रहता—सिर्फ शुद्ध चैतन्य, नाद, और अनंत शून्यता का अनुभव होता है।





5. निष्कर्ष

✅ अनाहत और सहस्रार चक्र का मिलन आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाता है।
✅ यह मिलन कुंडलिनी जागरण, अनाहद नाद साधना और ध्यान के माध्यम से संभव होता है।
✅ इस अवस्था में साधक दिव्य प्रेम, अनंत प्रकाश, और ब्रह्म से एकत्व का अनुभव करता है।
✅ यह उच्चतम समाधि (निर्विकल्प समाधि) में पूरी तरह प्रकट होता है।

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