जब अनाहद नाद (अहुर) हृदय में गूंजता है, तो यह परमात्मा की कृपा का संकेत होता है। यह स्थिति तब आती है जब साधक का मन पूरी तरह परमात्मा में रम जाता है, और वह निरंतर उनके स्मरण में रहता है।
अब सवाल यह उठता है कि फिर कोई व्यक्ति परमात्मा के नाम को दिल से कैसे भूल सकता है?
- माया और संसार का प्रभाव – स्थूल शरीर (भौतिक शरीर) इस संसार के कार्यों में व्यस्त रहता है। रोजमर्रा की जिम्मेदारियाँ, इच्छाएँ, मोह और विकार मन को भ्रमित कर सकते हैं, जिससे वह उस सूक्ष्म अनुभूति को भूल जाता है।
- अहंकार और आत्म-विस्मृति – जब व्यक्ति अहंकार या आत्म-भ्रम में आ जाता है, तो वह अपने सूक्ष्म स्वरूप को भूल जाता है और स्थूल जगत में ही लिप्त हो जाता है।
- अनुभूति और जागरूकता का स्तर – कभी-कभी अनाहद का अनुभव होता है, लेकिन यदि साधक उसमें स्थायी रूप से स्थित नहीं हो पाया, तो वह अस्थायी रूप से परमात्मा के स्मरण से भटक सकता है।
- साधना में कमी – अगर भजन, सुमिरन और ध्यान में कमी आ जाए, तो संसार के विकर्षण व्यक्ति को खींच सकते हैं।
लेकिन एक बार जिसने सच्चे हृदय से परमात्मा को अनुभव कर लिया, वह पूरी तरह से कभी भूल नहीं सकता।
सूक्ष्म शरीर में जो अनुभूति होती है, वह स्थायी होती है, लेकिन स्थूल शरीर और मन की चंचलता के कारण, कभी-कभी यह जागरूकता कम हो सकती है। यही कारण है कि साधक को निरंतर साधना, सुमिरन और आत्मचिंतन में लगे रहना चाहिए, ताकि वह अपनी अनुभूति को स्थायी बना सके।
अंततः, “रब बस्ता ही है” – हाँ, वह हमारे भीतर हमेशा विद्यमान है, चाहे हम उसे महसूस करें या न करें। बस, जब हम उसे याद करते हैं, तो वह अनुभूति जाग्रत हो जाती है, और जब हम भूल जाते हैं, तो वह हमारे भीतर ही छिप जाती है।पर छिपने के बाउजूद भी उसका अस्तित्व आत्मा में बना रहता है जो 24 घंटे ओम के रूप में गूंजता है इसलिए म्रत्यु स्थूल शरीर की हो सकती है सुक्ष। शरीर की नही क्योकि उसी से आत्मा जुड़ी होती है