यह वाक्य बहुत गहरी बात कहता है।
“गुरु और शिष्य में कृष्ण-अर्जुन जैसा बंधन हो तभी मुक्ति है” — इसका अर्थ यह है कि जब तक गुरु और शिष्य के बीच वह विश्वास, समर्पण, मार्गदर्शन और आत्मिक संबंध नहीं होता जो भगवान कृष्ण और अर्जुन के बीच था, तब तक सच्चे ज्ञान और मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती।

कृष्ण-अर्जुन के बंधन में जो बातें थीं:

  1. पूर्ण विश्वास: अर्जुन ने कुरुक्षेत्र में जब संशय में पड़कर अपना धनुष रख दिया, तब कृष्ण के ज्ञान को बिना शंका के स्वीकार किया।
  2. मार्गदर्शन: कृष्ण ने केवल ज्ञान नहीं दिया, बल्कि अर्जुन को उसके धर्म का स्मरण कराया और उसे कर्तव्य-पथ पर चलाया।
  3. समर्पण: अर्जुन ने स्वयं को पूरी तरह कृष्ण को समर्पित कर दिया — “शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्”

इसलिए जब शिष्य पूरी श्रद्धा से गुरु को स्वीकार करता है और गुरु भी शिष्य को सही मार्ग पर ले जाता है, तभी आत्मिक उन्नति और अंततः मुक्ति संभव है।”गुरु बिन ज्ञान न उपजै, शिष्य बिन न स्नेह,
कृष्ण-अर्जुन सम हो सकै, जब हो पूर्ण गेह।”

भावार्थ:
गुरु के बिना सच्चा ज्ञान संभव नहीं, और शिष्य के बिना गुरु का स्नेह भी अधूरा है। जब गुरु-शिष्य का संबंध कृष्ण और अर्जुन जैसा गहरा और पूर्ण होता है, तभी जीवन में सच्ची उन्नति और मुक्ति संभव है

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