“गरीब असत कमलदल—बाह्य भी शून्य, अंतर्मन भी शून्य।”

यहाँ “गरीब असत कमलदल” का अर्थ है वह कमल-पत्र जो न तो असली (सत्) है और न कोई भ्रामक संपत्ति का वाहक—मतलब, वह सम्पूर्ण रूप से शून्य है।

“बाह्य भी शून्य, अंतर्मन भी शून्य”—चाहे बाहर की वस्तुएँ हों या भीतर के अनुभूतियाँ, सब शून्यता (रिक्तता) के ही स्वरूप हैं।

  1. “रोम-रोम में शून्य हैं, जहाँ जाल की धुन-सा संगीत बजता है।”

“रोम-रोम” का संकेत हमारी देह के प्रत्येक कोहनी, ऊँगली—हर स्थल पर फैली ख़ाली-खूनापन या शून्यता की ओर है।

उस शून्यता में बजता “जाल-सा धुन” या “घुन-सा संगीत” हमारी इन्द्रियों की अव्यवस्थित, उलझी हुई गति और भ्रम का प्रतीक है—एक ऐसा संगीत जो हमें संसार के जाल में उलझाए रखता है।

  1. “तुम ही ‘सो–हम’ स्मृति हो, तुम्हीं मन-पवन।”

“सो–हम” का शाब्दिक अर्थ होता है “मैं वही (परमात्मा) हूँ।” यहाँ यह स्मृति हमें शून्यता से उठाकर चेतन आत्मा से जोड़ती है।

“तुम ही मन-पवन”—इस शून्य के बीच वह निरंतर चलने वाली, सब कुछ शून्य से भरने वाली चेतन वायु (ब्रह्मांडीय चेतना या ईश्वर) सिर्फ तुम ही हो।

  1. “इनमें पराया कौन आया, कौन फिरे?”

जब सब शून्य है और केवल ‘सो–हम’ की स्मृति एवं मन-पवन का प्रवाह है, तो वहाँ किसी पराये (दुसरे) का आना या जाना संभव ही नहीं।

प्रश्न रूपक रूप में कहता है: इस समग्र शून्यता और अविनाशी चेतना में “पराया” (भ्रमित अहंकार, छल-कपट, जन्म-मरण वृत्त) कौन बचा, कौन लौटा?

समग्रतः अर्थ:
वह अविनाशी, निर्विकार चेतना (जो ‘सो–हम’ की अनुभूति से जाग्रत होती है) ही सच्चा अस्तित्व है; शेष सब—हमारी देह, संसार, विचार, इन्द्रियाँ—शून्यता के विभिन्न रूप हैं। इस शून्य-आभा को जब हम ‘सो–हम’ की स्मृति के प्रकाश से देखते हैं, तो भ्रमित अहं-परिचय (पराया) अपने आप स्थानहीन हो जाता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *