“सुरीति निरति का पीव है, शब्द विलास विनोद”
शब्दार्थ:
सुरीति = उत्तम आचरण / शुभ नीति
निरति = लगन, गहरी रुचि
पीव = प्रियतम / परमात्मा (यहाँ “ध्यान का प्रिय विषय”)
शब्द = ध्वनि ब्रह्म, परम तत्व
विलास = लीला, सौंदर्यपूर्ण क्रिया
विनोद = आनंद, हर्ष
व्याख्या:
यह पंक्ति कहती है कि जो व्यक्ति उत्तम आचरण और ध्यान में गहरी लगन रखता है, उसके लिए “शब्द” (यहाँ ‘ध्वनि ब्रह्म’ या ‘नाद’ का प्रतीक) ही प्रियतम होता है। यह शब्द न केवल आध्यात्मिक साधना का माध्यम है, बल्कि वही आनंद और परमात्मा की लीला का स्वरूप भी है।
पंक्ति 2:
“ॐ सोऽहम से परें तिस पद कुं ले सोध”
शब्दार्थ:
ॐ = ब्रह्म का प्रतीक (आदि ध्वनि)
सोऽहम = “वह मैं हूँ” (आत्मा और परमात्मा की एकता का मंत्र)
तिस पद = वह अवस्था, परम पद (Ultimate State)
सोध = खोज, अनुसंधान करना
व्याख्या:
यहाँ कहा गया है कि “ॐ” और “सोऽहम” जैसे महान मंत्रों से भी परे जो “परम पद” है — उस दिव्य अवस्था की तलाश करो।
यह “परम पद” अनुभव का विषय है, केवल शब्दों या मंत्रों तक सीमित नहीं। यह साधक को संकेत करता है कि वह शब्द के पार जाकर उस शून्य, निर्वाण या सहज समाधि की अवस्था को प्राप्त करे जहाँ आत्मा और परमात्मा का भेद मिट जाता है।
पूर्णार्थ:
यह रचना एक आध्यात्मिक साधक को संकेत देती है कि:
उत्तम आचरण और ध्यान ही उसके साधना के सच्चे साथी हैं।
“शब्द” (ध्वनि या नाद) की लीला को समझो — वह आनंद और सत्य की ओर ले जाता है।
केवल मंत्रों और शब्दों तक न रुको — उस अवस्था तक जाओ जहाँ शब्द भी लुप्त हो जाते हैं, और केवल अनुभव बचता है।