एक रोज जब गुरु देव के चरणों
मैं बैठ कर भक्ति कर दिखावा कर
रहा था तभी गुरु देव ने मुझे
घूर कर देखा
ओर बोले ले ये तांबे का कलश ओर
कुवे पर जा खुद के हाथ से कुवे
में से जल निकाल कर मटकी को
भर बिना सर पर कुछ रखे उसे
भरी हुई मेरे पास ले कर आया
उनकी बात तो समझ नही पाया ओ
मटकी ले कुवे पर पहुच कर जल
कुवे से निकल बाल्टी से जल मटकी में
भर सर पर रख सोचते हुवे चल।पड़ा
की मटकी का जल न निकले और
भरी हुई उनके पास लेकर मैं
पहुच जाऊ
ये ही विचार लिए कुवे से गुरु जी घर तक
पगडंडी पर चलता हुवा सोच रहा था
कहि पानी न छलक जाए पर रास्ते
की बिछी कंकर ओर पांवो की
अस्थिर चाल ने
पानी जगह जगह लुढ़क गया और मटकी
जो भरी हुई थी कुछ खाली हो गई
पहुच गुरु देव के पास मटकी उनको पेश
करदी जो कुछ खाली थी जो
बता रही थी
मेरे कर्म जो बूंदे बाहर गिर गई वो
मेरे कर्म मेरी अधूरी साधनस ओर
मेरे अंदर के विकार थे जिनमें मिले
काम क्रोध अहंकार जलन द्वेष ओर ईर्ष्या
के भंडार थे जो मेरे अवगुणों को
ओर मेरी साधना को बता रही थी
कितनी कमिया मुझमे है ये वो
मटकी
मुझे बता रही थी मारे पश्चाताप के।
मैं बैचेन हो अपने को दोषी मान
रहा था जान गया था पनघट से
मटकी लाना बहुत मुश्किल है
गुरु की सेवा
निष्काम ओर निर्लिप्त हो मुझे
करनी होगी
अन्यथा जब तक मन मे स्थिरता
शांति लगावप्रेम भक्ति और अध्यात्मत का ज्ञान
न होगा तब तक मटकी भर के
लाना
मेरे लिए आसान न होगा