पिताजी साहब का कहना था कि जब कोई पूर्ण गुरु जो संत रूप में होता है जब किसी योग्य व्यक्ति को शिष्य बनाता है तब अपनी दिव्य दृष्टि से उसके रोम रोम में अपनी ऊर्जा रोपित कर उसके अंदर ऊर्जा का संचालन हृदय से ऊपर की ओर फिर पूरे शरीर मे ऊर्जा को संचालन कर पूरे शरीर मे अनाहद आवाज पैदा कर देता है ये कार्य गुरु उसी शिष्य के करता है जो पूर्व जन्म से या इस जीवन मे उच्च आध्यात्मिक स्तर पर होता है या उसने तपश्या कर इस जीवन मे आध्यात्मिक ऊर्जा को पा लिया हो या किसी आध्यात्मिक व्यक्ति की संगत में रहा हो यह अनाहद अध्यात्म की वह उच्च अवस्था है, जहां साधक आत्मिक शुद्धि और दिव्यता की चरम सीमा पर होता है। इस अवस्था में उसका सूक्ष्म और कारण शरीर पूर्ण रूप से उसके नियंत्रण में होता है। वह मोह-माया, सांसारिक आकर्षण और भौतिक जगत की जकड़नों से मुक्त हो जाता है। ओर वीतरागी की उच्च अवस्था मे निष्कामी संत होता है इससे नीची अवस्था मे ये अनाहद मिल तो सकती है पर उच्च पद बिना गुरू की आज्ञा के नही मिलता
साधक इस स्थिति में एक उच्च कोटि के संत रूप में अपना गृहस्थ जीवन जीता है और निष्काम बन घर मे रहता है और निस्वार्थ जीवन जीता है दुनिया मे रहते हुवे उसे भौतिक दुनिया से कोई लेना देना नही होता हर केसरी वह गुरु की सेवा मानकर फकीर बन कर करता है स्वम् फकीर हो जाता है यहां मेरा अभिप्राय उस फ़क़ीर से नही जो भीख मांगता है बल्कि उस फकीरी से है जी गुरु के लिए सेवक बन सब त्याग कर मोह माया से मुक्त विकार रहित जीवन जीता है जहाँ न सुख न दुख कुछ नही अगर कुछ है तो गुरु की कृपा वह।निर्लिप्त, शांत और साक्षी भाव में स्थित।होता है और उसे रोम रोम में अनाहद नाद (वह दिव्य ध्वनि जो बिना किसी बाहरी कारण के भीतर गूंजती है) उसके अनुभव का केन्द्र बन जाती है, जो उसे ब्रह्म से एकत्व की अनुभूति कराती है।
अनाहद नाद में रमता, जो योगी आत्मा ज्ञानी बन जाता है मोग माया विकारो से मुक्त सब भव-बंधन तोड़ चुका होता है यहां वह, माया से अनजान हो जाता है।माया विकार से मुक्त विकार रहित हो जाता है संत ने लिखा है कबीर वाणी
नाद अनाहत भीतर गूंजे, न सुर, न ताल, न वाणी है,
जहां लयातीत शून्य बसता, वही उसकी कहानी है।
सूक्ष्म तन और कारण देह, अब साधक के वश में हैं,
नियंत्रण जिसका भीतर हो, वह देवों के सम शश में है।
न मोह उसे, न लोभ कोई, न इच्छा की अधिरचना,
साक्षी भाव में लीन वह रहता, ब्रह्म रूप की प्रतिच्छाया।
संत वही जो समत्व धरे, प्रिय-अप्रिय में न भेद करे,
जिसके अंतर नाद अनाहद, वह सहज समाधि सरे।कबीर के अनुसार
अनहद बाजे बाजे रे भाई, भीतर गगन मं झांकी।
सूना साधक तज्यो जगत को, माया की ना बांकी।
सुर ना ताल न वाद्य बजे, न बंसी न कोई राग।
मन भीतर जो झांके देखे, ब्रह्म नाद अनुराग।
सूक्ष्म तन ते पार गया है, कारण देह नियारा।
मोह माया के जंजाल तज, जपै नाम प्यारा।
बिरला साधक जानत इसको, बाकी सब जग सोवे।
अनहद में जो डूब गया रे, काल फंद न खोवे।
तुलसीदास की चौपाई शैली में – अनाहद नाद की अवस्था:
साधक जब लखि निज स्वरूपा। तजि माया बंधन स्वरूपा।।
अनहद नाद गगन में गूंजा। ज्यों ब्रह्मा रस भीतर पूँजा।।सूक्ष्म देह ते कारण छूटा। मोह जाल सब संग से टूटा।।
निज में स्थित संत सुबोधा। देखत जग को मिथ्या मोहा।।सुर ता ताल न कोई बाजे। भीतर ही भीतर रस साजे।।
जहां न शब्द, न रूप बिसाले। चित्त जहाँ हरषै निरवाले।।लय होई जब मन सों प्रीति। तब पाइ परम तत्त्व की रीति।।
बिरला साधक इहि पथ धारे। तुलसी कहै, तिनहि सब प्यारे।।
यदा साधकः स्वमात्मानं नादबिन्दुरूपेण अनुभवति…”
भावार्थ:
जब साधक अपने आत्मस्वरूप को नाद (ध्वनि) और बिंदु (प्रकाश) के रूप में अनुभव करता है, तब वह स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों की सीमाओं से ऊपर उठ जाता है।
श्लोक 2:
“स नादो न कर्णगोचरः, न च मनोविकल्पः…”
भावार्थ:
यह नाद (ध्वनि) कानों से सुनने योग्य नहीं है और न ही मन की कल्पनाओं का विषय है। यह अनाहत (बिना उत्पत्ति के) है—यह न तो किसी साधन से उत्पन्न होता है, और न ही किसी क्रिया से नष्ट होता है।श्लोक 3:
“स नादः हृदयगुहायाम् अनवरतम् प्रतिध्वनति…”
भावार्थ:
यह नाद हृदय की गहराइयों में सतत प्रतिध्वनित होता है, जहाँ न दिन होता है न रात, न कोई रूप होता है न कोई रंग—सिर्फ मौन और चेतना की उपस्थिति होती है।श्लोक 4:
“एष ब्रह्मस्वरूपः नादः…”
भावार्थ:
यह अनाहद नाद ही ब्रह्म का स्वरूप है। जब साधक इसमें पूर्णतः लीन हो जाता है, तब वह जीवन्मुक्त (जीते-जी मुक्त) हो जाता है।श्लोक 5:
“मोह-मायाया बन्धनानि छिन्नानि…”
भावार्थ:
इस अवस्था में मोह और माया के सभी बंधन टूट जाते हैं, द्वैत (दोता) की भावना समाप्त हो जाती है। वह साधक साक्षी भाव में स्थित रहता है—वह ही सच्चा संत और ज्ञानी कहलाता है।श्लोक 6:“संतः न त्यजति लोकं…”
भावार्थ:
ऐसा संत संसार को छोड़ता नहीं, न ही उसमें लिप्त होता है। वह संसार को देखता हुआ भी उसमें लिप्त नहीं होता, और आत्मा को अदृश्य रूप में निरंतर अनुभव करता रहता हैश्लोक 7:
“एषा अवस्था दुर्लभा…”
भावार्थ:
यह अवस्था अत्यंत दुर्लभ है। केवल वही इसे प्राप्त कर सकता है जो संसार से विरक्त हो चुका है, और जो ध्यान व आत्मचिंतन में सदा स्थित रहता है।