पिताजी बहुत कम बोलते थे और कुछ कहते उसे विस्तार से समझाते थे उनका कहना था कि एक शिष्य का मुख्य धर्म है गुरु की आज्ञा व शिक्षा का पालन करना व उसके बताये मार्ग पर चलना यदि कोई शिष्य अपने अंदर के विकारों को यदि मिटा नही सके तो भी विकार रहित बनने के लिए कोशिश करे काम क्रोध मोह अहंकार मद जलन और ईर्ष्या ओर व्यापार में बईमानी या किसी के साथ ना इंसाफ से दूर रहे जब ये विकार कम।या खत्म हो जाएंगे और शिष्य प्रेम भक्ति ज्ञान ध्यान व समाधि की अवस्था मे गुरु के आशीर्वाद व ज्ञान व उसके बताये तरीको पर अमल।कर शून्य की अवस्था मे जब पहुच जाएगा तब इसके बाद अनंत यानी महा शून्य की अवस्था में चलना पड़ेगा ये एक ऐसी आध्यात्मिक अवस्था है जो मानसिक या आध्यात्मिक स्थिति है, जिसमें मन विचारों, इच्छाओं, और सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर पूर्ण शांति और एकाग्रता की अवस्था में होता है। यह बौद्ध दर्शन में “शून्यता” (शून्यवाद) और भारतीय दर्शन में “निर्विकल्प समाधि” या “ब्रह्मावस्था” से संबंधित है। इस अवस्था में व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत पहचान, अहंकार, और सांसारिक मोह को त्यागकर परम सत्य या ईश्वर के साथ एकाकार हो जाता है। जो की उसे यह ध्यान, योग ज्ञान , और भक्ति के गहन अभ्यास व गुरु की मेहर से प्राप्त हो ती है इस विशाय में निम्न ।संतों के विचार और दोहे: लिख रहा हु जो लितजी के द्वारा दिये ज्ञान को ट्रक संगत बताती है
संत कबीर दास ने अपने दोहो में एक मे लिखा है
मन मस्त हुआ तब क्यों बोले, जैसे मस्तक सौंप दिए।
जब सांच पायो परमपद, तब क्या अंतर किए।। इसका साधारण भाषा मे अर्थ: जो बताया गया है वह है कि कबीर दास कहते हैं कि जब मन पूर्ण रूप से परमात्मा में लीन हो जाता है (महा शून्य की अवस्था), तब वह विचारों और वाणी से परे हो जाता है। इस अवस्था में व्यक्ति का अहंकार समाप्त हो जाता है, और वह परम सत्य के साथ एक हो जाता है। मन को परमपद (महा शून्य या ईश्वर) की प्राप्ति हो जाने पर कोई अंतर या भेद नहीं रहता इसी तरह से संत तुलसीदास गोस्वामी ने अपने लेखों में ये दोहा लिखा है जो बताता है :तुलसी मन मंदिर मे राम, रटत रहो दिन रैन।
जब लग मन में और कुछ, तब तक दुख की खान।यहां तुलसीदास कहते हैं कि जब तक मन में सांसारिक इच्छाएं और विचार रहते हैं, तब तक दुख बना रहता है। महा शून्य की अवस्था तब प्राप्त होती है, जब मन केवल राम (परमात्मा) के भजन में लीन हो जाता है, और सारे सांसारिक विचार शून्य हो जाते हैं। यह अवस्था मन को मंदिर बनाकर राम के निरंतर स्मरण से प्राप्त होती है।रैदास (रविदास):दोहा:मन चंगा तो कठौती में गंगा।अर्थ: संत रविदास कहते हैं कि यदि मन शुद्ध और विचारों से मुक्त (शून्य) हो जाए, तो वह परम पवित्र हो जाता है। ऐसी अवस्था में व्यक्ति को बाहरी तीर्थों की आवश्यकता नहीं, क्योंकि शुद्ध मन ही गंगा के समान पवित्र हो जाता है। यह महा शून्य की ओर इशारा करता है, जहां मन सांसारिकता से मुक्त होकर परमात्मा में विलीन हो जाता है।नागार्जुन और बौद्ध दर्शन (शून्यता):बौद्ध दर्शन में नागार्जुन ने “शून्यता” को एक दार्शनिक सिद्धांत के रूप में प्रतिपादित किया। उनके अनुसार, संसार के सभी पदार्थ और विचार सांवृतिक (व्यावहारिक) सत्य हैं, जो अविद्या (अज्ञान) से उत्पन्न होते हैं। महा शून्य की अवस्था वह है, जहां व्यक्ति इन सांसारिक सत्यों को पार करके परमार्थिक सत्य (निर्वाण) तक पहुंचता है। यह अवस्था चार कोटियों—अस्ति, नास्ति, उभय, और नोभय—से परे होती है।महा शून्य की अवस्था कब आती है?ध्यान और योग: गहन ध्यान और योग साधना के माध्यम से मन की चंचलता शांत होती है, और व्यक्ति विचारशून्य अवस्था में प्रवेश करता है। यह अवस्था समाधि या निर्विकल्प चेतना से संबंधित है।भक्ति: संतों के अनुसार, जब भक्त पूर्ण समर्पण के साथ परमात्मा का स्मरण करता है, तो उसका मन सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर महा शून्य की अवस्था में पहुंचता है।आत्म-विसर्जन: जब अहंकार, इच्छाएं, और सांसारिक मोह का त्याग होता है, तब मन शून्यता की अवस्था में होता है, जो परम शांति और एकता की स्थिति है।सारांश:
महा शून्य की अवस्था मन की वह स्थिति है, जहां सांसारिक विचार, इच्छाएं, और अहंकार समाप्त हो जाते हैं, और व्यक्ति परमात्मा या निर्वाण के साथ एकाकार हो जाता है। संतों के दोहे इस अवस्था को भक्ति, शुद्धता, और आत्म-समर्पण के माध्यम से प्राप्त करने की प्रेरणा देते हैं। कबीर, तुलसीदास, और रविदास जैसे संतों ने अपने दोहों में इस अवस्था की महत्ता को सरल और गहन रूप में व्यक्त किया है जो पिताजी की कहि बात को समर्थन करती है ओर ज्ञान देती हैपिताजी बहुत कम बोलते थे और कुछ कहते उसे विस्तार से समझाते थे उनका कहना था कि एक शिष्य का मुख्य धर्म है गुरु की आज्ञा व शिक्षा का पालन करना व उसके बताये मार्ग पर चलना यदि कोई शिष्य अपने अंदर के विकारों को यदि मिटा नही सके तो भी विकार रहित बनने के लिए कोशिश करे काम क्रोध मोह अहंकार मद जलन और ईर्ष्या ओर व्यापार में बईमानी या किसी के साथ ना इंसाफ से दूर रहे जब ये विकार कम।या खत्म हो जाएंगे और शिष्य प्रेम भक्ति ज्ञान ध्यान व समाधि की अवस्था मे गुरु के आशीर्वाद व ज्ञान व उसके बताये तरीको पर अमल।कर शून्य की अवस्था मे जब पहुच जाएगा तब इसके बाद अनंत यानी महा शून्य की अवस्था में चलना पड़ेगा ये एक ऐसी आध्यात्मिक अवस्था है जो मानसिक या आध्यात्मिक स्थिति है, जिसमें मन विचारों, इच्छाओं, और सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर पूर्ण शांति और एकाग्रता की अवस्था में होता है। यह बौद्ध दर्शन में “शून्यता” (शून्यवाद) और भारतीय दर्शन में “निर्विकल्प समाधि” या “ब्रह्मावस्था” से संबंधित है। इस अवस्था में व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत पहचान, अहंकार, और सांसारिक मोह को त्यागकर परम सत्य या ईश्वर के साथ एकाकार हो जाता है। जो की उसे यह ध्यान, योग ज्ञान , और भक्ति के गहन अभ्यास व गुरु की मेहर से प्राप्त हो ती है इस विशाय में निम्न ।संतों के विचार और दोहे: लिख रहा हु जो लितजी के द्वारा दिये ज्ञान को ट्रक संगत बताती है
संत कबीर दास ने अपने दोहो में एक मे लिखा है
मन मस्त हुआ तब क्यों बोले, जैसे मस्तक सौंप दिए।
जब सांच पायो परमपद, तब क्या अंतर किए।। इसका साधारण भाषा मे अर्थ: जो बताया गया है वह है कि कबीर दास कहते हैं कि जब मन पूर्ण रूप से परमात्मा में लीन हो जाता है (महा शून्य की अवस्था), तब वह विचारों और वाणी से परे हो जाता है। इस अवस्था में व्यक्ति का अहंकार समाप्त हो जाता है, और वह परम सत्य के साथ एक हो जाता है। मन को परमपद (महा शून्य या ईश्वर) की प्राप्ति हो जाने पर कोई अंतर या भेद नहीं रहता इसी तरह से संत तुलसीदास गोस्वामी ने अपने लेखों में ये दोहा लिखा है जो बताता है :तुलसी मन मंदिर मे राम, रटत रहो दिन रैन।
जब लग मन में और कुछ, तब तक दुख की खान।यहां तुलसीदास कहते हैं कि जब तक मन में सांसारिक इच्छाएं और विचार रहते हैं, तब तक दुख बना रहता है। महा शून्य की अवस्था तब प्राप्त होती है, जब मन केवल राम (परमात्मा) के भजन में लीन हो जाता है, और सारे सांसारिक विचार शून्य हो जाते हैं। यह अवस्था मन को मंदिर बनाकर राम के निरंतर स्मरण से प्राप्त होती है।रैदास (रविदास):दोहा:मन चंगा तो कठौती में गंगा।अर्थ: संत रविदास कहते हैं कि यदि मन शुद्ध और विचारों से मुक्त (शून्य) हो जाए, तो वह परम पवित्र हो जाता है। ऐसी अवस्था में व्यक्ति को बाहरी तीर्थों की आवश्यकता नहीं, क्योंकि शुद्ध मन ही गंगा के समान पवित्र हो जाता है। यह महा शून्य की ओर इशारा करता है, जहां मन सांसारिकता से मुक्त होकर परमात्मा में विलीन हो जाता है।नागार्जुन और बौद्ध दर्शन (शून्यता):बौद्ध दर्शन में नागार्जुन ने “शून्यता” को एक दार्शनिक सिद्धांत के रूप में प्रतिपादित किया। उनके अनुसार, संसार के सभी पदार्थ और विचार सांवृतिक (व्यावहारिक) सत्य हैं, जो अविद्या (अज्ञान) से उत्पन्न होते हैं। महा शून्य की अवस्था वह है, जहां व्यक्ति इन सांसारिक सत्यों को पार करके परमार्थिक सत्य (निर्वाण) तक पहुंचता है। यह अवस्था चार कोटियों—अस्ति, नास्ति, उभय, और नोभय—से परे होती है।महा शून्य की अवस्था कब आती है?ध्यान और योग: गहन ध्यान और योग साधना के माध्यम से मन की चंचलता शांत होती है, और व्यक्ति विचारशून्य अवस्था में प्रवेश करता है। यह अवस्था समाधि या निर्विकल्प चेतना से संबंधित है।भक्ति: संतों के अनुसार, जब भक्त पूर्ण समर्पण के साथ परमात्मा का स्मरण करता है, तो उसका मन सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर महा शून्य की अवस्था में पहुंचता है।आत्म-विसर्जन: जब अहंकार, इच्छाएं, और सांसारिक मोह का त्याग होता है, तब मन शून्यता की अवस्था में होता है, जो परम शांति और एकता की स्थिति है।सारांश:
महा शून्य की अवस्था मन की वह स्थिति है, जहां सांसारिक विचार, इच्छाएं, और अहंकार समाप्त हो जाते हैं, और व्यक्ति परमात्मा या निर्वाण के साथ एकाकार हो जाता है। संतों के दोहे इस अवस्था को भक्ति, शुद्धता, और आत्म-समर्पण के माध्यम से प्राप्त करने की प्रेरणा देते हैं। कबीर, तुलसीदास, और रविदास जैसे संतों ने अपने दोहों में इस अवस्था की महत्ता को सरल और गहन रूप में व्यक्त किया है जो पिताजी की कहि बात को समर्थन करती है ओर ज्ञान देती है