आध्यात्मिकता में जब हम गुरु की कृपा पाकर भौतिक जीवन को आध्यात्मिक जीवन की तरफ मोड़ कर गुरु देव के प्रति समर्पण कर समर्पित हो एकाग्रता की उच्च अवस्था जिसमे आध्यात्मिकता की भक्ति, ज्ञान, ध्यान और समाधि का सर्वोच्च ज्ञान शामिल है जो गुरु के द्वारा शिष्य को समय समय पर मार्गदर्शन ओर शिक्षा जे रूप में मिलता है ये सचमुच,आध्यात्मिक उच्च साधना के रूप में साधना की प्रक्रिया की एक अवस्था आती है जब साधक का चित्त पूरी तरह से संसार की मोह-माया से हट जाता है और विरक्ति उत्पन्न होती है। यही विरक्ति उसे केवल्य की ओर ले जाती है।जिसमे आध्यात्मिक गुरु की सहमति ओर आशीर्वाद शामिल होता है
केवल्य का अर्थ है—पूर्ण स्वतंत्रता, आत्मा की परम स्वतंत्र अवस्था, जहाँ न कोई बंधन होता है, न कोई भ्रम। यह अवस्था गुरु की कृपा, और अपनी साधना के गहरे अनुभव से ही प्राप्त होती है। जैसे-जैसे भक्ति गहरी होती जाती है, ज्ञान प्रकट होता है, ध्यान स्थिर होता है, और अंततः समाधि में वह अहंकार मिट जाता है जो ‘मैं’ और ‘मेरा’ को पकड़े रहता है।
गुरु की मेहर (कृपा) यहाँ निर्णायक होती है, क्योंकि वही भीतर के अज्ञान को मिटा कर उस परम सत्य से मिलवाते हैं।1. भक्ति (Devotion)
यह साधना का आरंभिक लेकिन अत्यंत शक्तिशाली चरण है। इसमें साधक अपने को ईश्वर या गुरु के चरणों में समर्पित कर देता है।
लक्षण:
ईश्वर के प्रति प्रेम
भजन, कीर्तन, सेवा
“मैं” भाव का धीरे-धीरे क्षय
अपने स्वार्थ से ऊपर उठना
भक्ति का उद्देश्य है हृदय को शुद्ध करना, जिससे ध्यान और ज्ञान की भूमि तैयार हो।
- ज्ञान (Wisdom)
यह वह अवस्था है जब साधक को आत्मा और शरीर, आत्मा और संसार के भेद का बोध होता है।
लक्षण:
“मैं कौन हूँ?” का उत्तर मिलना
वेदांत या अन्य शास्त्रों का अभ्यास
सत्य-असत्य में भेदबुद्धि
निरंतर आत्मचिंतन
ज्ञान से मोह और अज्ञान मिटता है।
- ध्यान (Meditation)
यह अवस्था साधक को भीतर स्थिर करती है। भक्ति और ज्ञान के माध्यम से जब चित्त शांत हो जाता है, तब ध्यान सधता है।
लक्षण:
एकाग्रता
इंद्रियों पर नियंत्रण
भीतर उतरना – बाह्य दुनिया से विरक्ति
ध्यानस्थ अवस्था में आनंद और शांति की अनुभूति
यहाँ विरक्ति (dispassion) तीव्र हो जाती है।
- समाधि (Union / Absorption)
जब ध्यान पूर्ण हो जाता है, तो साधक आत्मा में स्थित हो जाता है – यही समाधि है।
लक्षण:
अहं का लय
काल, देश, व्यक्ति का बोध मिट जाना
अनंत आनंद, अनंत शांति
कोई इच्छा शेष नहीं रहती
केवल्य अवस्था (Kaivalya – Liberation / Absolute Aloneness)
यह समाधि के बाद की अंतिम अवस्था है।
केवल्य = केवल आत्मा में स्थित होना।
यहाँ:
साधक पूर्ण रूप से मुक्त होता है
संसार, शरीर, संबंध – सबसे विरक्त, पर अंदर से पूर्ण
यह अवस्था गुरु की कृपा से आती है, क्योंकि स्वंय से स्वयं को पार करना असंभव है बिना कृपा के
योग में इसे परम पुरुषार्थ माना गया है