“जिस घर में धर्म का निवास होता है…”

इस भाग में यह बताया गया है कि एक ऐसा घर जहाँ धार्मिकता, सदाचार, और नैतिक मूल्य अपनाए जाते हैं — वहाँ “धर्म” टिकता है।
यहाँ “धर्म” का तात्पर्य केवल पूजा-पाठ या किसी विशेष परंपरा से नहीं है, बल्कि:

सत्य बोलना

अहिंसा का पालन

दया, करुणा, क्षमा जैसे गुणों को अपनाना

कर्म का सदुपयोग करना
इन सबका पालन करना भी “धर्म” कहलाता है।


  1. “…और जहां सेवा-भक्ति से भगवान की पूजा होती है…”

यहाँ सेवा और भक्ति को पूजा से जोड़ा गया है। केवल मंत्र या दिखावे से की गई पूजा नहीं, बल्कि:

सेवा भाव – माता-पिता, गुरु, अतिथि और जरूरतमंदों की सेवा

भक्ति भाव – भगवान के प्रति निष्ठा, समर्पण, विनम्रता और प्रेम
जब ये दोनों मिलते हैं, तब पूजा सच्चे अर्थों में प्रभावी होती है।


  1. “वहाँ धर्म स्वयं निवास करता है।”

इसका आशय यह है कि ऐसा घर स्वयं एक तीर्थ बन जाता है, क्योंकि वहां:

आत्मिक शांति होती है

कल्याणकारी विचार होते हैं

अच्छाई और सच्चाई का वातावरण होता है

घर के सदस्य एक-दूसरे के प्रति प्रेम, आदर और सहयोग का भाव रखते हैं

धर्म कोई बाहर से लाया गया तत्व नहीं, बल्कि आचरण से उत्पन्न होने वाला गुण है। जब वह घर के व्यवहार और सोच में बस जाता है, तब वह घर “धर्म का घर” कहलाता है।


निष्कर्ष:

इस वाक्य का संदेश है कि पूजा-पाठ से अधिक जरूरी है सेवा और भक्ति का भाव, और जब ये दोनों किसी घर में हों, तब वहाँ धर्म अपने आप निवास करता है। एक सच्चा धार्मिक घर वह है जहाँ सदाचार, सेवा, भक्ति और प्रेम हो।

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