यह प्रश्न केवल तर्क का नहीं, आत्मिक अनुभव और परंपरा का विषय है। आइए इसे आध्यात्मिक दृष्टि से समझें:
- गुरु शिष्य को क्यों चुनता है?
गुरु को शिष्य चुनने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि वह पूर्ण होता है।
लेकिन फिर भी, जब कोई शिष्य आत्मा से पुकारता है, तप करता है, जिज्ञासा और समर्पण से भर जाता है — तो वह गुरु की दृष्टि में आता है।
कहावत है:
“जब शिष्य तैयार होता है, तो गुरु प्रकट होता है।”
गुरु जानता है कि कौन उसकी शक्ति और ज्ञान को ग्रहण करने योग्य है। वह शिष्य की आत्मा की पुकार को सुनता है, उसके संस्कारों को देखता है, और फिर उसे स्वीकार करता है। गुरु के लिए यह कृपा होती है, न कि चयन।
- शिष्य गुरु को क्यों और किसलिए चुनता है?
शिष्य अधूरा होता है, वह जिज्ञासु होता है, उसे दिशा चाहिए।
वह अपने भीतर एक अधूरी तलाश महसूस करता है — उस अधूरेपन को भरने के लिए वह किसी पूर्ण को खोजता है।
इसलिए वह गुरु को चुनता है — प्रेरणा, मार्गदर्शन, और आत्मबोध के लिए।
लेकिन असल में, शिष्य भी “गुरु को नहीं चुनता” — बल्कि वह खुद गुरु की खोज में चला जाता है, और जैसे-जैसे उसकी चेतना परिपक्व होती है, उसे उसका “सच्चा गुरु” मिल जाता है।
यह चुनाव नहीं, आत्मिक आकर्षण और पूर्व जन्मों के संस्कारों का फल होता है।
- गुरु पूर्ण और शिष्य अधूरा — फिर संवाद कैसा?
गुरु और शिष्य का संबंध एक दीप से दूसरे दीप को जलाने जैसा है।
गुरु तो केवल एक दर्पण है, जो शिष्य को उसका अपना दिव्य रूप दिखाता है।
गुरु का कार्य है —
शिष्य के अहंकार को गलाना,
अज्ञान को हटाना,
और भीतर के ब्रह्म को प्रकट करना।
गुरु खुद कुछ “देता” नहीं — वह तो केवल शिष्य की आंखें खोलता है।
निष्कर्ष:
गुरु और शिष्य का संबंध आध्यात्मिक मार्ग की सबसे पवित्र परंपरा है।
गुरु शिष्य को चुनता है — उसकी पात्रता देखकर।
शिष्य गुरु को खोजता है — अपनी अधूरी प्यास को बुझाने।
और जब दोनों मिलते हैं, तो ज्ञान, कृपा और मुक्ति की यात्रा शुरू होती है।