अध्यात्म में . भंवर का प्रतीक:
भंवर (या भँवरा) संत साहित्य में आत्मा या ईश्वर के अति सूक्ष्म और रहस्यमय स्वरूप का प्रतीक है। यह सदा भीतर की यात्रा का संकेत देता है — जहाँ साधक बाहरी मंदिर-मस्जिद से हटकर अपने हृदय की गहराई में प्रवेश करता है।
कबीर कहते हैं:
“पावकु बीच भँवर गुनगाता, नित ही रस बरसाता।”
यानी — आत्मा रूपी भंवरा अग्नि के बीच (संसार की तपन में) भी ईश्वर की मधुर रसमयी वाणी में मग्न है।
- “हृदय में भंवर का वास” – यह क्या है?
यहाँ हृदय से तात्पर्य केवल शरीर का अंग नहीं, बल्कि आध्यात्मिक केंद्र है। योग परंपरा में इसे सहस्त्रार चक्र (सिर के ऊपर) के रूप में भी जाना जाता है, जो ज्ञान और ब्रह्मानुभूति का द्वार है।
दादू दयाल कहते हैं:
“भ्रम के भँवर से उबर चला, सहज की नाव चढ़ाई।”
— यानी जिसने भीतर झाँका, वही भंवर से पार हुआ।
- अनहद अविगतु राग — ये क्या हैं?
अनहद नाद: वह दिव्य ध्वनि जो साधना के गहरे अनुभवों में सुनाई देती है, जिसे कोई बाहरी साधन नहीं बजाता।
अविगत राग: वह ऐसी ध्वनि या राग है जिसे साधारण कान नहीं सुन सकते। यह केवल ध्यानस्थ योगी के अनुभव में आता है।
गुरु नानक कहते हैं:
“अनहद शब्द बजाइया, गुरमुखी सो सुने।”
— यानी गुरु के मार्ग पर चलने वाला ही उस अनहद ध्वनि को सुन सकता है।
- ‘किसने जाना भंवर को’ — क्या यह प्रश्न ही उत्तर है?
संत कह रहे हैं — बहुतों ने खोजा, परंतु तत्व को अनुभव से ही जाना जा सकता है। केवल वाणी, शास्त्र, या तर्क से नहीं।
कबीर कहें:
“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।”
निचोड़:
यह पद हमें आत्म-जागरूकता, ध्यान और भीतर की यात्रा के लिए प्रेरित करता है। इसका सार यह है कि —
सत्य बाहर नहीं, भीतर है।
उसका स्वरूप शब्दातीत है — अनहद है, अविगत है।
उसे जानने के लिए चाहिए — प्रेम, समर्पण और साधना।