गंगा किनारे एक तपस्वी गुरु अपने शिष्य के साथ बैठे थे। शिष्य वर्षों से साधना कर रहा था, पर भीतर संतोष नहीं था।

शिष्य: “गुरुदेव, मैं दिन-रात ध्यान करता हूँ, सेवा करता हूँ, फिर भी आत्मिक शांति नहीं मिलती। आखिर मैं क्या कमी कर रहा हूँ?”

गुरु मुस्कराए। उन्होंने शिष्य को एक मटकी दी और कहा, “जाओ, गंगा से यह मटकी भरकर लाओ… एक भी बूँद छलकनी नहीं चाहिए।”

शिष्य मटकी लेकर गया। गंगा में डुबोई, भर ली — पर जैसे ही लौटने लगा, रास्ते में कहीं पैर फिसला, कहीं ठोकर लगी, कहीं ध्यान भटका — और हर बार थोड़ी-थोड़ी बूँद छलकती गई।

गुरु के पास पहुंचा तो मटकी आधी खाली थी।

गुरु: “यही है तेरे प्रश्न का उत्तर। तू साधना करता है, पर ध्यान भटकता है — कभी क्रोध में, कभी लोभ में, कभी अहं में। तेरी मटकी छलक जाती है।”

शिष्य: “तो क्या कभी मटकी पूरी भर सकती है?”

गुरु: “जब तू चलेगा सावधानी से, पूरे होश के साथ, जब तेरा हर क़दम एक प्रार्थना होगा — तब मटकी भर जाएगी। गंगा तो देती है, पर उसे सँभालना तुझ पर है।”

शिष्य की आँखों में आँसू आ गए। उस दिन पहली बार उसने साधना को एक जिम्मेदारी की तरह नहीं, एक प्रेम और सजगता की तरह देखा।

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