आत्मा और भौतिक शरीर का संबंध भारतीय दर्शन, विशेषकर वेदांत, सांख्य और भगवद गीता जैसे ग्रंथों में विस्तार से समझाया गया है। इस संबंध को संक्षेप में इस प्रकार समझा जा सकता है:
आत्मा का स्वरूप: हम जानते है और धर्म के अनुसार मानते भी है और उन्ही नियमो का जीवंत में जन्म से मर्त्यु तक 16 संस्कारो के अनुसार जीवन मे पालन कर एक उच्च स्तिथि पर अपने को ले जाते है कीआत्मा निराकार, अविनाशी, और शुद्ध चेतन तत्व है।वह जन्म नहीं लेती, न मरती है; वह सदा है — “न जायते म्रियते वा कदाचित्…” भगवद गीता कहती है और
शरीर का स्वरूप निम्न तरह से ग्रंथो में वर्णित है कीशरीर भौतिक और नश्वर है। यह पंचमहाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) से बना है और समय के साथ नष्ट होता है। ओर आत्मा और शरीर का संबंधआत्मा शरीर में साक्षी भाव से स्थित रहती है, लेकिन जब वह अहंकार और मन-बुद्धि से जुड़ जाती है, तो उसे लगता है कि वह स्वयं शरीर है।यह संबंध कर्मों के आधार पर होता है — आत्मा अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार एक नया शरीर धारण करती है। इसके लिए शास्त्रो में निम्न तरह से वर्णित है “पुनर्जन्म” (Reincarnation) कहलाती है। आत्मा शरीर को वैसे ही बदलती है जैसे मनुष्य पुराने कपड़े उतारकर नए पहनता है फिर भी मर्त्यु का भय रहता है ओट जन्म और मर्त्यु में सम्बंध के साथ भय बना रहता है जीवन है तो मर्त्यु अवश्य होगी अगर मर्त्यु हुई तो फिर से जन्म ले कर्म भुगतान हेतु शरीर की रचना कर्म के अनुसार होगी हम जानते है और सींचते है कि ये मृत्यु बंधन क्यों आत्मा जब तक अपने कर्मों का फल नहीं भोग लेती, तब तक वह शरीर के बंधन में बंधी रहती है।ये सत्य है फिर भी जानते है कि एक न एक दिन इस भौतिक शरीरकमृत्यु होगी ओर शरीर का अंत है, पर आत्मा का नहीं वह नया शरीर लेती है। यह चक्र तब तक चलता है जब तक आत्मा ज्ञान और मोक्ष द्वारा शरीर से ऊपर उठकर परमात्मा में लीन नहीं हो जाती। आत्मा का स्वरूप – (शाश्वत और अविनाशी)
हमने पढ़ा है कि “न जायते म्रियते वा कदाचित् नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरेआत्मा कभी जन्म नहीं लेती, न ही उसकी मृत्यु होती है। वह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है। शरीर के नष्ट होने पर भी आत्मा नष्ट नहीं होती। आत्मा और शरीर का संबंध कपड़े की तरह शरीर बदलेना वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देह
जैसे मनुष्य पुराने कपड़े उतारकर नए पहनता है, वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करती है। . आत्मा का शरीर में रहना – कर्मफल “यं यं वापि स्मरं भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥”
मरण के समय जो भाव या विचार आत्मा में होता हैआत्मा अगले जन्म में उसी भाव के अनुसार नया शरीर प्राप्त करती है।. आत्मा कब मुक्त होती है? चुकी मैं आध्यात्मिक दुनिया मे रहता हूं और आध्यात्मिक संस्कार मिले है इस तरह से मेरे मन मे बहुत कम ख्याल में बदलाव आता है न किसी के लिए बुरा सोचता हूं न बुरा करता हु अगर कोई मुझे कहता है भी है अब तो उसे सुन के कोई प्रतिक्रिया मेरे मन मे नही होती और सोच लेता हूं ये उसके कर्म और विचार है मेरे लिए मैं क्यो इसका भागीदार बनु मैं ध्यान में चलता हूं और एक बार मन मे आई कि अनुभव कर के देखु की मौत
कैसे आती है समाधि में बैठ गया और लगा कि कोई ऊर्जा पाव के अंघुथे के पास से निकल कर उपर की ओर बढ़ रही है और जीवन मे जब से समझ आई तब से विचार मस्तिष्क में तेजी से आने लगे ओर मन मे कहि घ्रणा तो कहि खुशी अनुभव होने लगी मर्त्यु निरन्तर अपनी गति से धीरे ढीट ऊपर मस्तिष्क की ओर बढ़ रही थी और सोच में अच्छे बुरे कर्म की फ़िल्म चल रही थी तभी मन ने कहा जो कर लिया उसके लिए सोच क्यो ओर अपने आप को गुरु भगवान के ख्याल में लगा कर उनका स्मरण करने लगा और शून्य में पहुच गया इस स्तिथि में मौत जो यूपर की ओर बढ़ रही थी रुक गई और ये अनुभव वही रुक गया और मैं समाधि में लय हो गया जब आंख खुली तो एबख्तू अनुभव था बस यही से सिच बदल गई और निस्वार्थ जीवन जीने की शिक्षा मिल गई अब न किसी के प्रति द्वेष न खुशी बस कर्म करने है और गृहस्थी का पालन और जो आया उसकी सहायता पर मोह बस नही करम के अनुसार करता हु ओर जब समझ गया कि शरीर की मर्त्यु निश्चित है तो घर गृहस्थी में पत्नी रिस्तेदार से मोह किस लिए जब कोई मेरे साथ जा नही सकता तो ये बंधन तो भौतिक है आध्यात्मिक बनधन तो आत्मा से है जिसमे काला दाग नही लगने देना चुनरी जो मिली है उसे साफ रखने के लिए सत कर्म।कर निस्कसम जीवन जीना समझ मे आ गया