अद्यतमिक दुनिया मे गुरु और शिष्य का साथ जन्म।जन्मों से चला आ रहा है और जब जन शिष्य जन्म लेता है तो गुरु देव उसके उद्धार केकर गुरुबरूप में किसी भी रूप में आते है ये रूपआनव जातक का होता है और कोई।लिंग भेद नही होता
जिस प्रकार समुद्र में डाले गए एक छोटे से कंकड़ से उत्पन्न तरंगें बिना किसी रुकावट के एक छोर से दूसरे छोर तक फैल जाती हैं, उसी प्रकार जब सद्गुरु की चेतनात्मक ऊर्जा शिष्य के हृदय पर पड़ती है, तो वह ऊर्जा उसकी समस्त नस-नाड़ियों में प्रवाहित होकर मन, चित्त और शरीर में व्याप्त समस्त विषैले विकारों को समाप्त कर देती है। यह ऊर्जा पूरे शरीर को जीवंत कर देती है और अंत:करण को नाद — अर्थात् परम ध्वनि — से परिपूर्ण कर देती है।”
गुरु (मुरशिद) की कृपा एक रूहानी तरंग होती है
सूफियों के अनुसार, गुरु को “मुरशिद” कहा गया है, जिसकी कृपा जब शिष्य के दिल पर पड़ती है, तो वह एक रूहानी कंपन उत्पन्न करती है — जैसे किसी शांत जल में कंकड़ डालने पर हलचल होती है हृदय का शुद्धिकरण और नफ्स का विनाश
यह ऊर्जा धीरे-धीरे शिष्य के भीतर की अशुद्धियों — जैसे अहंकार, वासना, क्रोध, लोभ आदि (जिन्हें “नफ्स” कहा गया है) — को धो डालती है और आत्मा को शुद्ध कर देती हैऊर्जा का विस्तार पूरे शरीर में होता है
यह तरंग केवल हृदय तक सीमित नहीं रहती, बल्कि समस्त रक्त वाहिनियों में प्रवाहित होकर सम्पूर्ण शरीर को ऊर्जावान बना देती है। शरीर में एक नई चेतना, एक दिव्यता आ जाती है।. नाद की अनुभूति — ईश्वर की ध्वनि
जब मन शांत और हृदय निर्मल हो जाता है, तब भीतर से “अनहद नाद” — वह दिव्य ध्वनि सुनाई देने लगती है, जो परमात्मा की उपस्थिति का संकेत है। सूफी इसे “समा” या “ईश्वर का संगीत” कहते हैं।
गुरु की कृपा एक दिव्य कंपन है, जो दिल से निकलती है और आत्मा को छूती है। जैसे समुद्र की तरंगें दूर-दूर तक जाती हैं, वैसे ही मुरशिद की नजर से निकली ऊर्जा शिष्य के अंतस को आलोकित कर देती है। यही ऊर्जा अंत में आत्मा को ईश्वर से जोड़ती है।