शून्यता में पूर्णता: समाधि और ओम नाद का दिव्य संगम

समाधि में ध्यान की अवस्था में विचार शून्य हो जाते हैं, क्योंकि मन पूर्णतः एकाग्र और शांत हो जाता है। इस अवस्था में चेतना व्यक्तिगत विचारों, इच्छाओं और बाहरी विकर्षणों से मुक्त होकर शुद्ध सत्ता या आत्मा के साथ एकरूप हो जाती है। इंसान का चित्त शून्य में रम जाता है, अर्थात वह अपनी व्यक्तिगत पहचान और संसारिक बंधनों से परे जाकर शुद्ध चेतना या ब्रह्म में लीन हो जाता है।ओम शब्द, जो अनाहत नाद (अनाहद) का प्रतीक है, शरीर में तब उत्पन्न होता है जब चेतना कुंडलिनी शक्ति के जागरण या सूक्ष्म नाड़ियों (जैसे इड़ा, पिंगला, और सुषुम्ना) के संतुलन के माध्यम से उच्चतर चक्रों (विशेष रूप से आज्ञा या सहस्रार चक्र) तक पहुँचती है। यह नाद आंतरिक शांति और दिव्य ऊर्जा का प्रतीक है। समाधि में यह अनाहत नाद स्वाभाविक रूप से प्रकट होता है, क्योंकि मन और शरीर की सारी हलचल शांत होकर चेतना उस मूल स्रोत (ब्रह्म या परमात्मा) से जुड़ जाती है, जहाँ से ओम का कंपन उत्पन्न होता है।संक्षेप में, ओम का उदय इसलिए होता है क्योंकि समाधि में चेतना अपनी मूल प्रकृति, जो शुद्ध और सनातन है, के साथ एक हो जाती है, और यह नाद उस एकता का स्वरूप है।

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