इल्लत, किल्लत, जिल्लत’ को झेलकर ही शिष्य पूर्णता की ओर बढ़ता है, यह भारतीय गुरु-शिष्य परंपरा का एक अभिन्न अंग रहा है। आइए इसे विस्तार से समझते हैं:
- ‘इल्लत’ (समस्याएं/दिक्कतें) – शारीरिक और मानसिक कसौटी:
- शारीरिक श्रम और असुविधाएँ: प्राचीन गुरुकुलों में शिष्य को गुरु के साथ रहना पड़ता था, जिसमें उन्हें आश्रम के दैनिक कार्यों में हाथ बंटाना होता था। लकड़ी लाना, भिक्षाटन करना, खेत में काम करना, साफ-सफाई करना – ये सभी कार्य शारीरिक श्रम और असुविधाएँ पैदा करते थे। इसका उद्देश्य केवल सेवा नहीं था, बल्कि शिष्य में अहंकार को मिटाना, परिश्रम का महत्व समझाना और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी धैर्य बनाए रखने की क्षमता विकसित करना था। आज भी, कई आध्यात्मिक परंपराओं में, शिष्य को कठिन तपस्या और शारीरिक अनुशासन से गुजरना पड़ता है।
- इंद्रियों पर नियंत्रण: गुरु अक्सर शिष्य को ऐसे कार्य या अभ्यास देते थे जो उसकी इंद्रियों पर नियंत्रण सिखाते थे। स्वादिष्ट भोजन से वंचित रहना, कम नींद लेना, शीतल जल में स्नान करना, या कठोर आसन करना – ये सब इल्लत के ही रूप हैं जो मन को मजबूत बनाते हैं।
- सीमित संसाधन और जीवनशैली: गुरुकुलों में जीवन सादा होता था। आधुनिक सुख-सुविधाओं की कोई व्यवस्था नहीं होती थी। शिष्य को न्यूनतम संसाधनों में जीवन जीने की कला सीखनी पड़ती थी। यह उसे भौतिक मोह से मुक्त करता था और संतोष की भावना पैदा करता था।
- ‘किल्लत’ (कमी/अभाव) – मोह और इच्छाओं का त्याग:
- व्यक्तिगत इच्छाओं का अभाव: शिष्य को अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं और आकांक्षाओं को त्यागना पड़ता था। गुरु के निर्देशों का पालन सर्वोपरि होता था। अपनी पसंद-नापसंद, आराम या व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को छोड़ना पड़ता था।
- सामग्री का अभाव: कई बार शिष्य को भोजन, वस्त्र या अन्य भौतिक वस्तुओं की कमी का सामना करना पड़ता था। यह उसे संतोषी बनाता था और सिखाता था कि वास्तविक ज्ञान बाहरी सुख-सुविधाओं पर निर्भर नहीं करता।
- समय का अभाव (व्यक्तिगत उपयोग के लिए): शिष्य का पूरा समय गुरुसेवा, अध्ययन और अभ्यास में लगा होता था। उसे स्वयं के मनोरंजन या अन्य व्यक्तिगत गतिविधियों के लिए बहुत कम समय मिलता था। यह एकाग्रता और लगन सिखाता था।
- ‘जिल्लत’ (अपमान/तिरस्कार) – अहंकार का विसर्जन:
- गुरु द्वारा कठोर व्यवहार या डाँट: गुरु कई बार शिष्य को जानबूझकर कठोर शब्द कहते थे, डाँटते थे, या ऐसा व्यवहार करते थे जो शिष्य के अहंकार को चोट पहुंचाए। यह अपमान नहीं था, बल्कि अहंकार रूपी पर्दे को हटाने का एक तरीका था। जब शिष्य के भीतर का ‘मैं’ टूटता है, तभी ज्ञान का प्रकाश प्रवेश कर पाता है।
- सामाजिक उपेक्षा या निंदा: कई बार शिष्य को समाज में उपेक्षा या निंदा का भी सामना करना पड़ता था, खासकर जब वह भिक्षाटन करता था या ऐसे कार्य करता था जिन्हें समाज में निम्न माना जाता था। यह उसे बाहरी प्रशंसा या निंदा से अप्रभावित रहना सिखाता था।
- निरंतर परीक्षा और आलोचना: गुरु निरंतर शिष्य की क्षमताओं, समर्पण और सीखने की इच्छा की परीक्षा लेते रहते थे। इसमें असफलता या गुरु की आलोचना भी शामिल थी, जो शिष्य को विनम्रता और अपनी कमियों को स्वीकार करना सिखाती थी।
क्यों यह परीक्षा इतनी कठिन होती है? - अहंकार का नाश: यह प्रक्रिया शिष्य के अहंकार, ‘मैं’ की भावना को पूरी तरह से मिटा देती है। जब अहंकार नहीं रहता, तभी व्यक्ति सच्चे ज्ञान और अंतर्दृष्टि को ग्रहण कर पाता है।
- दृढ़ संकल्प और धैर्य: ‘इल्लत, किल्लत, जिल्लत’ का सामना करने से शिष्य में अद्वितीय दृढ़ संकल्प, धैर्य और सहनशीलता विकसित होती है। ये गुण न केवल उसके आध्यात्मिक मार्ग के लिए, बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में सफलता के लिए आवश्यक हैं।
- वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति: गुरु का उद्देश्य केवल किताबों से ज्ञान देना नहीं होता, बल्कि शिष्य को जीवन की सच्चाई, आंतरिक शांति और स्वयं को जानने की दिशा में ले जाना होता है। यह तभी संभव है जब शिष्य भौतिक मोह, अहंकार और व्यक्तिगत इच्छाओं से मुक्त हो।
- समर्पण और विश्वास: इन परीक्षाओं के माध्यम से शिष्य का गुरु के प्रति अटूट विश्वास और समर्पण विकसित होता है। वह समझता है कि गुरु का हर कार्य उसके भले के लिए है, भले ही वह उस समय अप्रिय लगे।
- शुद्धि और परिवर्तन: यह पूरी प्रक्रिया शिष्य का शुद्धिकरण करती है। उसके मन और आत्मा से अनावश्यक बोझ हट जाते हैं, और वह एक नए, परिवर्तित स्वरूप में सामने आता है, जो गुरु बनने के योग्य होता है (या कम से कम एक पूर्ण शिष्य बनने के लिए)।
यह प्रक्रिया गुरु-शिष्य परंपरा का सार है, जहां गुरु शिष्य को हीरे की तरह तराशता है, उसे हर कसौटी पर परखता है ताकि वह जीवन के परम सत्य को अनुभव कर सके। यह केवल तभी संभव है जब शिष्य ‘रूह कांपने’ की हद तक स्वयं को गुरु को समर्पित कर दे।