पतंजलि योगसूत्र में कैवल्य का स्वरूप

  1. उपनिषदों और अद्वैत वेदांत में कैवल्य
  2. कैवल्य में भक्ति और प्रेम का स्वाभाविक उदय

  1. पतंजलि योगसूत्र में कैवल्य

योगसूत्र (IV अध्याय – कैवल्यपाद) के अनुसार:

“पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यम् स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्ति इति।” (योगसूत्र 4.34)

अर्थ: जब प्रकृति (गुण) पुरुष के लिए काम करना बंद कर देती है और अपनी मूल स्थिति (प्रतिप्रसव) में लौट जाती है, तब पुरुष अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। यही कैवल्य है।

यहाँ कैवल्य का मतलब है:

सभी संस्कारों, वासनाओं, मोह का अंत।

न कोई बंधन, न कोई अपेक्षा।


  1. उपनिषद और अद्वैत वेदांत में कैवल्य

कैवल्योपनिषद और मुण्डक उपनिषद में कहा गया है:

“सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते। अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्॥” (गीता 18.20)

अर्थ: जो सब प्राणियों में एक ही ब्रह्म को देखता है, वही सात्त्विक ज्ञान है।

अद्वैत वेदांत कहता है:

कैवल्य = आत्मा और ब्रह्म का अभेद अनुभव।

जब “मैं” और “मेरा” समाप्त होता है, तभी ब्रह्मानंद का अनुभव होता है।


  1. कैवल्य में भक्ति और प्रेम का स्वाभाविक उदय

क्योंकि:

जब अहंकार मिटता है, तो प्रेम स्वार्थरहित हो जाता है।

जब भेदभाव मिटता है, तो प्रेम सार्वभौमिक हो जाता है।

यह प्रेम ही सच्ची भक्ति है – किसी रूप या लाभ के लिए नहीं, बल्कि केवल ब्रह्म की अनुभूति के कारण।

शंकराचार्य ने कहा:

“भक्तिर्नित्यवस्तुसंस्थति।”
भक्ति स्थायी वस्तु (ब्रह्म) में स्थित होने का नाम है।

इसलिए कैवल्य में:

मोह → समाप्त

त्याग → सहज

भक्ति → स्वरूपगत

प्रेम → सर्वव्यापक

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