जब दृष्टि निर्मल हो सर्वत्र वही

ही तू है” का अर्थ है – साधक को हर जगह वही परमात्मा, वही चेतना, वही ईश्वर दिखाई देता है।जब दृष्टि भीतर से निर्मल हो जाती है, तब बाहर का समूचा जगत उसी एक सत्ता का विस्तार प्रतीत होता है साधक की नज़र जिधर भी जाती है, उसे वहाँ कोई दूसरा नहीं दिखता – केवल वही परम तत्व, वही ईश्वर।यह वही अवस्था है जिसे संतों ने कहा –सूंय सुंय समाना, सब देखे रामा”या कबीर का भाव – “जाको मुख देखो ताको, हंसत राम दिखाई”यह स्थिति भक्ति और ज्ञान दोनों का संगम है।भक्ति में “प्रेम” से ईश्वर सर्वत्र दिखाई देता है।ज्ञान में “ब्रह्म” सर्वत्र एकरस अनुभव होता है।इसका सार यही है कि – जब दृष्टा और दृश्य के बीच का भेद मिट जाता है, तब केवल “वह” रह जाता है।

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